शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

यमुनोत्री से गंगोत्री 4: यमुनोत्री

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यमुनोत्री मन्दिर परिसर में पांचो

जहां जानकीचट्टी 2650 मीटर की ऊंचाई पर है वहीं यमुनोत्री मन्दिर 3235 की ऊंचाई पर स्थित है।इन दोनों के बीच की दूरी लगभग छः किलोमीटर है।यानी हमें 6 किलोमीटर में लगभग 600 मीटर की चढ़ाई करनी है।जो अपने आप में मुश्किल चढाई की श्रेणी में आती है।

हमने एक ढांबे पर चाय पी कर यात्रा की शुरुआत कर दी।शुरू शुरू में रास्ता ज्यादा मुश्किल नहीं है।इस रास्ते पर पत्थरों से सीढिया बनाई गई है जिन पर चढ़ने ने थकान जल्दी होती है।लेकिन रास्ता जितना मुश्किल है रास्ते की सुंदरता उतनी ही ज्यादा है।आसमान छूते पहाड़ों के बीच से जब गुजरते हैं तो लगता है कि इस संसार में अगर वास्तविक सुख है तो वो इन पहाड़ों में ही है।

चांदीराम सबसे ज्यादा उत्साह में लग रहा है।उसको लगता है कि अब वो समय आ गया है जब वो अपनी फिटनेस की ताकत सभी को दिखा सकता है।अगर शारीरिक बनावट के हिसाब से मूल्यांकन किया जाए तो हम पांचो में सबसे कमजोर और हल्का चांदीराम ही है।चांदीराम की इसी कमजोरी का हमेशा मजाक बनाया जाता है। आज चांदीराम का यही हल्कापन चांदीराम के अंदर जोश का संचार किये हुए है।वैसे चाँदीराम को सिर्फ एक ही आदमी से एलर्जी है और वो आदमी बदकिस्मती से मैं हूँ।चांदीराम का हर मुकाबला मुझ से ही होता है।

यात्रा के तीन किलोमीटर तो ठीक ठाक निकल गए।लेकिन जैसे जैसे आगे बढ़ रहे हैं।रास्ता वैसे ही मुश्किल होता जा रहा है।आधे रास्ते पर एक बार फिर से चाय पी गयी।अभी तक कि यात्रा का हिसाब किताब देखें तो अनिल और कालुराम सही हालत में है और सबसे आगे चल रहे हैं।बाकी चांदीराम, मैं और राजेंद्र एक साथ चल रहे हैं।कुल मिलाकर चांदीराम खुश है।उसके खुश होने का एक ही महत्वपूर्ण कारण होता है।वो है मेरा दुःखी होना।लेकिन वो सिर्फ इस एक कारण से खुश नही है।आनिल ने चांदीराम को बताया है कि हम यमुनोत्री के बाद गंगोत्री और उसके बाद केदारनाथ जाएंगे।जिससे चारधाम यात्रा के नियमों का पालन भी हो जाएगा चांदीराम को अनिल पर उतना ही यकीन है जितना यकीन महाभारत में युधिष्ठिर के सच बोलने पर गुरुद्रोणाचार्य को था।चांदीराम अनिल की हर बात को पत्थर की लकीर मानता है।
यमुनोत्री मार्ग पर एक लोहे का पुल

खड़े खड़े आराम करते हुए

रास्ते में खूबसूरत नजारा


बुधवार, 22 अप्रैल 2020

यमुनोत्री से गंगोत्री 3: बड़कोट से जानकीचट्टी की ओर

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यमुनोत्री में अनिल की साधना

बड़कोट

लगभग 1300 मीटर की ऊंचाई पर यमुना किनारे बसा बड़कोट एक ठेठ पहाड़ी कस्बा है।यहां यात्रियों के ठहरने और खाने के लिए बहुत से होटल और गेस्ट हाउस बने हुए हैं।बड़कोट से एक रास्ता जानकीचट्टी जाता है तथा एक रास्ता धरासू बेंड जाता है।जानकीचट्टी यमुनोत्री का बेस कैम्प है जहां से यमुनोत्री के लिए चढाई शुरू होती है।जानकीचट्टी की बड़कोट से दूरी लगभग 45 किलोमीटर है।यहां से दिन में 2-3 बस भी जानकीचट्टी जाती है जिनके जाने का निश्चित समय है।बस के अलावा छोटी गाड़ियां जैसे सूमो,मैक्स,क्रूजर भी अच्छी संख्या में यात्रियों को लेकर जानकीचट्टी जाती है।जो शेयरिंग में आसानी से मिल जाती है।

बड़कोट पहुंचते ही सबसे पहले निर्णय लिया गया कि कोई ढंग का होटल देखकर खाना खाया जाए।एक होटल पर खाना खाने के बाद होटल वाले से पूछा कि जानकीचट्टी के लिए बस के बारे में पूछा।होटल वाले ने बताया कि बस तो 2 घण्टे बाद है।अगर आप बस में जाओगे तो लेट हो जाओगे।इसी रास्ते पर थोड़ा आगे जाने पर एक पुल आएगा उसे पार करते ही टैक्सी स्टैंड है वहां चले जाओ।आपको वहां तुरन्त कोई छोटा साधन मिल जाएगा।उसने ये भी बताया कि अगर आप एक-डेढ़ बजे तक जानकीचट्टी पहुंच जाते हो तो आज ही यमुनोत्री जाकर वापिस आ सकते हो।और ये भी सम्भव है कि आपको बड़कोट का साधन भी मिल जाए।उसने अपना फोन नम्बर भी दिया और कहा कि अगर आप बड़कोट लेट पहुंचे तो शायद आपको कोई होटल खुला ना मिले।आप मुझसे फोन पे बात कर लेना मैं आपको यहां कमरा दे दूंगा।

खैर बड़कोट से हमें जानकीचट्टी के लिए एक गाड़ी मिल गयी और कुछ देर बाद हम जानकीचट्टी वाले रास्ते पर पर्वतों के मनमोहक दृश्यों को निहार रहे थे।जैसे जैसे गाड़ी आगे बढ़ रही थी नज़ारे और भी खूबसूरत होते जा रहे थे।दूर पहाड़ों की बर्फ से सफेद हुई चोटियां बहुत अच्छा अहसास करवा रही थी।वैसे भी मेरे लिए मंजिल से ज्यादा रास्ते मायने रखते हैं।लगभग 10 किलोमीटर चलने के बाद अचानक गाड़ी की चाल कम हो गयी।ड्राइवर ने थोड़ा आगे चलकर गाड़ी रोक ली।पता चला कि गाड़ी में कोई समस्या हो गयी है।ड्राइवर ने सभी सवारियों से कहा कि मैं आपको दूसरी गाड़ी में बैठा दूंगा क्यों कि मुझे नहीं लगता कि इस गाड़ी से हम जानकीचट्टी पहुंच पाएंगे।तभी एक गाड़ी विपरीत दिशा से आती दिखाई दी।ड्राइवर ने वो गाड़ी रुकवा ली उसमें बस 2-3 ही सवारी थी।ड्राइवर ने उससे बात की कि तू मेरी सवारियों को जानकीचट्टी ले जा और मैं तेरी सवारियों को लेकर बड़कोट चला जाऊंगा।ड्राइवर ने दूसरी गाड़ी के ड्राइवर को अपनी समस्या अच्छे से समझा दी।लेकिन दूसरे ड्राइवर की भी अपनी कोई समस्या थी जिसके चलते बात परवान नहीं चढ़ी।तभी अनिल का ध्यान गाड़ी की छत पर गया।चांदीराम गाड़ी की छत से हमारी बैग नीचे उतार रहा था।

"चांदीराम,बैग क्यों उतार रहा है?"-अनिल ने चांदीराम को आवाज देते हुए पूछा।

"जब दूसरी गाड़ी में जाना है तो बैग तो उतारनी पड़ेगी।"-चांदीराम ने जवाब देते हुए कहा।

"तू एक काम कर नीचे आजा।एक बार बात तो बनने दे दूसरी गाड़ी वाले के साथ।"-राजेन्द्र प्यार से चांदीराम को कह रहा था।

लेकिन चांदीराम नीचे तभी उतरा जब निश्चित हो गया कि अब यही गाड़ी धीरे धीरे चलते हुए जानकीचट्टी जाएगी।

ड्राइवर की कोशिश कामयाब नहीं हो पाई थी और अंत में ड्राइवर ने गाड़ी के चलने का कोई जुगाड़ कर लिया था।हर 4-5 किलोमीटर बाद जुगाड़ सेट करना पड़ता था।इस तरह जुगाड़ को सेट करते करते गाड़ी जानकीचट्टी की तरफ बढ़ती रही।

इस रास्ते पर कई चट्टियाँ आती हैं जैसे स्यानचट्टी,रानाचट्टी,हनुमानचट्टी और सबसे आखिर में आती है जानकीचट्टी।ये सभी इस रास्ते पर आने वाले गांव के नाम है।जानकीचट्टी से 5-6 किलोमीटर पहले आती है हनुमानचट्टी।कुछ साल पहले जब जानकीचट्टी तक सड़क नहीं बनी थी तब यहीं से यमुनोत्री के लिए पैदल मार्ग शुरू होता था।जैसे जैसे हम जानकीचट्टी की तरफ बढ़ते जाते हैं ऊंचाई भी बढ़ती जाती है और उसी अनुपात में प्राकृतिक सुंदरता भी।

खैर हम लोग लगभग एक बजे के करीब जानकीचट्टी पहुंच गए।यहां पहुंचते ही सबसे पहले मेरे लिए जरूरी था कोई नाई की दुकान देखना ताकि जब रास्ते मे फ़ोटो खींची जाए तो फ़ोटो ढंग की आए ना आये थोबड़ा तो ठीक आ ही जाए।जब मैंने सेव करने के अपनी आधिकारिक निर्णय के बारे में सभी को बताया तो किसी ने कोई एतराज नही किया।एक आदमी को एतराज था लेकिन उसने मुंह से नहीं कहा।उसे मुंह से कहने की जरूरत भी नहीं थी उसका चेहरा सब कुछ बता रहा था।

खैर जल्द ही मेरी सेव हो चुकी थी।तब तक सभी फैसला ले चुके थे कि चढाई आज ही शुरू करेंगे और आज ही वापिस आएंगे।एक होटल पर बैग रख दिये गए।होटल चलाने वाली एक औरत थी।जब अनिल ने उससे पूछा कि बैग रखने के लिए क्या कुछ लोगी तो उसका जवाब था कि जो आपका मन करे दे देना।

अब बारी थी यात्रा शुरू करने की।

बड़कोट होटल के पीछे का दृश्य

बड़कोट होटल के पीछे

रास्ते में बहती यमुना


चांदीराम गाड़ी की छत पर

पहाड़ो की चोटियों पर बर्फ

सेव करवाने के बाद



यात्रा की शुरुआत चाय पीकर


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सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

यमुनोत्री से गंगोत्री 2: बड़कोट तक का सफर

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छुटमलपुर:पकोड़ों का मुआयना करता चांदी राम


बस सुबह अपने निर्धारित समय पर  विकासनगर से चल पड़ी।बस बड़कोट  नहीं जाएगी सिर्फ नौगांव तक ही जाएगी।ये बात कंडक्टर ने टिकट काटते हुए बताई।उसने ये भी बताया कि नौगांव पहुंचते ही आपको बड़कोट के लिए कैब टाइप कोई ना कोई साधन तुरन्त मिल जाएगा।वहां से बड़कोट सिर्फ 20 मिनट के रास्ते पर है।हमें इस बात से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा।हमें कोई जल्दी नहीं थी।आराम से ही जाना है तो फिर काहे का तनाव। 

 सुबह उठकर सबसे पहले मैंं नहा लिया था बाकी चारों को बाहर से लाकर चाय भी पिलाई थी।चाय देखकर चांदीराम बहुत खुश हुआ था।वो कुछ समय के लिए केदारनाथ को भी भूल गया था।बस में सीट आरक्षण का एक ही आधार था पहले आओ पहले पाओ।या पहले आके सीट पर अपना कोई सामान रख दो।हमने दूसरे तरीके को अपनाया था। बस के चलने से लगभग 5 मिनट पहले बस लगभग भर चुकी थी।मैं ड्राइवर के बाऐं वाली सीट पर दूसरे नम्बर पर बैठा हूँ।मेरे से आगे एक छोटा सा लड़का बैठा है जो 7वीं कक्षा का विद्यार्थी है।कालू राम जी बोनट पर बैठे हैं।उन्हें कुदरत के लुभावने नज़ारों का आनन्द लेना है। जिस सीट पर मैं बैठा हूँ वहां बैठ तो ढंग से 3 ही आदमी सकते हैं।3 बैठ भी चुके हैं लेकिन कंडक्टर का मानना है कि ये 4 सवारियों की सीट है।लेकिन कम जगह देखकर वहां कोई नहीं बैठता।कुछ लोकल सवारियां खड़ी भी हैं जिन्हें आसपास के गांव तक ही जाना है।

चांदी राम ड्राइवर के पीछे खिड़की वाली सीट पर विराजमान है।अनिल और राजेंद्र उसी लाइन पर थोड़े पीछे एक साथ बैठे हैं।जब बस चलने लगी तभी एक लड़की छोटा सा बैग हाथ में लिए हुए बस में सवार हुई।कंडक्टर ने हमारी सीट की तरफ इशारा कर दिया कि वहां बैठ जाओ एक सीट खाली है।नतीजतन थोड़ी ही देर में वो मेरे और मेरे पास बैठे दूसरे व्यक्ति के बीच में फिट हो चुकी है। 

 बस विकासनगर से निकल चुकी है और सड़क के दोनों ओर की इमारतों का स्थान हरे भरे खेतों ने ले लिया है। 

 "पहाड़ी रास्ता कब शुरू होगा"-कालू राम मुझसे पूछ रहा था। 

 "बस 3-4 किलोमीटर बाद शुरू हो जाएगा"-मैं कुछ बोलता उससे पहले ही ड्राइवर ने जवाब दे दिया। 

 कालूराम की ये पहली पर्वतीय यात्रा थी इस लिए वो पहाड़ों से मिलने के लिए बेकरार था।इस समय दिन पूरी तरह निकल चुका था। इसी बीच मेरा ध्यान चांदीराम की तरफ गया।उसका ध्यान भी मेरी ही तरफ था।  

मैंने पूछ लिया-"चांदीराम सब ठीक-ठाक है?" चांदीराम ने मुंह से जवाब देना जरूरी नहीं समझा बस हां में गर्दन हिला दी।

इस समय चांदीराम बोलने की बजाय बस देखने के मूड में है।कभी खिड़की के बाहर प्राकृतिक दृश्य देखने लगता है तो कभी मेरे पास बैठी लड़की को और कभी बुरा सा मुंह बनाके मुझे देख लेता है। बस को चले लगभग आधा घण्टा हो चुका है।पहाड़ी मार्ग भी शुरू हो चुका है।कालूराम का रोमांच शब्दों के जरिये उसके मुंह से बाहर निकलने लगा है। 

 "यो तो कसुता मोड़ था यार।जे कोई आपणा ला ड्राइवर होंदा तो बस खाई म पड़ी मिलदी।"-कालूराम ने बस के ड्राइवर की बड़ाई में या यूं कह सकते है कि मैदानी ड्राइवरों पर अविश्वास जताते हुए कहा। 

 वैसे उसके शब्दों की बजाए उसके चेहरे के भाव उसके मन में चल रहे कौतूहल को ज्यादा बयान कर रहे थे।मुझे लगने लगा कि कालूराम इन रास्तों को देखकर आश्चर्यचकित होने के साथ साथ डर भी रहा था। कालूराम की बातें सुनकर पास बैठी लड़की जो अब तक चुप बैठी थी।बोलने पर मजबूर हो गयी। 

 "आप लोग घूमने आए हो क्या?"-उसने मुझसे पूछा। 

 "हां, हम लोग यमुनोत्री जा रहे हैं और उसके बाद गंगोत्री जाएंगे।"-मैंने जवाब देते हुए कहा। 

 "वैसे हम लोग हरियाणा से हैं।"-मैंने बात आगे बढ़ाई। 

 "ये मेरे साथी हैं।"-मैंने कालूराम की तरफ इशारा करते हुए कहा।साथ ही ये भी बता दिया कि 3 साथी पीछे बैठे हैं। 

 अब हमारी बातचीत शुरू हो चुकी है।लड़की का नाम साक्षी डिमरी है।डिमरी उसका सरनेम है।इसका गांव नौगांव से भी आगे पुरोला मार्ग पर है।इसके पिताजी पुजारी का काम करते हैं।इसकी एक बहन हरियाणा में ब्याही है।इस लिए इसके मन में हरियाणा के लोगों के लिए सम्मान का भाव है।गांव में सिर्फ इसके दादा दादी रहते हैं।इसके पिता ने गांव को छोड़कर विकासनगर में मकान बना लिया है।इसका एक महत्वपूर्ण कारण बच्चों की पढ़ाई और गांव में सुविधाओं का अभाव होना है।साक्षी संगीत की छात्रा है तथा स्नातक तृतीय वर्ष में है। 

 पहाड़ो में पलायन

 पहाड़ो में सुविधाओं का अभाव होना और जीवन कठोर होने की वजह से साल दर साल भारी संख्या में पलायन पिछले कई सालों से हो रहा है।पलायन की वजह से गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं।सरकार की सुस्ती ने पलायन बढाने में आग में घी का काम किया है।पहाड़ी युवा पहाड़ों में नहीं रहना चाहता।युवाओं की सोच अपने पूर्वजों की तरह पहाड़ में रहकर कठोर जीवन जीने की नहीं रही। उनको लगता है कि दिल्ली,देहरादून और हल्द्वानी जैसे शहर उनके सपनों को पूरा कर सकते है।यही सोच पहाड़ी युवा लड़कियों की है।वो भी पहाड़ी ससुराल की बजाए मैदानी ससुराल को ज्यादा महत्व देती हैं ताकि उन्हें कठोर जीवन ना जीना पड़े। 

 डेढ़-दो घण्टे चलने के बाद बस एक जगह विश्राम के लिए रुकी।यहां 3-4 छोटे छोटे होटल और दुकानें थीं।सुबह विकासनगर में सभी ने बस चाय ली थी सोचा कुछ खा लेते हैं।मैंने साक्षी को भी आमंत्रित किया कि वो भी हमारे साथ कुछ ले ले।एक दुकान में हमनें ठंडे का ऑर्डर दे दिया साथ में कुछ नमकीन।यहां मैंने साक्षी का परिचय सभी से करवाया।चांदीराम से भी। वहां बैठे बैठे मैंने जलने की कुछ बदबू सी महसूस की। कुछ ही देर में तो बदबू बहुत ज्यादा हो गयी।क्या जल रहा है कुछ समझ नहीं आया।फिर थोड़ा नाक पर जोर दिया तो महसूस हुआ चांदीराम की तरफ से जलने की बदबू आ रही है।मुझे समझने में कोई देर नहीं लगी। 

 "कोई बात नहीं बेटा,अभी तो और भी जलना है।"-मैंने ये बात मन में ही रख ली चांदीराम से नहीं कही। 

 "साक्षी,हमारे चांदीराम जी अभी तक अविवाहित हैं।आपके पहाड़ो में इनके लायक कोई लड़की है तो बताओ।"-राजेन्द्र ने चांदीराम के प्रति अपनत्व दिखाते हुए साक्षी से कहा। 

 "इन्होंने जब से राम तेरी गंगा मैली फ़िल्म देखी है,कसम खा ली है कि शादी किसी पहाड़ी मंदाकिनी से ही करूंगा।है कोई मंदाकिनी आपकी नजर में इनके लायक?"-आवाज कालूराम की थी। 

 दोनों की बात सुनकर साक्षी ने चांदीराम को गौर से देखा।चांदीराम ने बाल ठीक करने के लिए अपना बायां हाथ उठाया और फिर कुछ सोचकर वापिस नीचे कर लिया।शायद शर्म आ गयी थी। 

 इससे पहले की वो कोई जवाब देती कंडक्टर ने सिटी बजा दी।सभी बस की ओर चल पड़े। 

 बस चलने के बाद साक्षी मुझसे पूछने लगी-"क्या ये सच में कंवारे है?" 

 "हाँ।"-मेरा जवाब था। 

 "इन्होंने शादी क्यों नहीं की?"-उसने अगला प्रश्न दाग दिया। 

"आपके गांव तक गाड़ी जाती है या उतर कर पैदल चलना पड़ता है?"-कालूराम की आवाज थी।वो साक्षी से पूछ रहा था। 

 "जहां बस उतारेगी वहां से 2 किलोमीटर पहाड़ पर पैदल चढ़ना पड़ेगा तब जाकर घर पहुंचूंगी।"-साक्षी ने जवाब दे दिया। 

 कालूराम अब भी संतुष्ट नहीं हुआ,बोला-"फिर आप लोग अपने साधन कहाँ खड़े करते हो?या रखते ही नहीं हो?" 

 "नहीं रखते तो हैं लेकिन नीचे सड़क पर ही खड़े करते हैं कोई जगह देख के।"-साक्षी का जवाब था।  

"चोरी का डर नहीं होता?"-फिर अगला सवाल। 

 कालूराम सवाल पूछता रहा।साक्षी जवाब देती रही।मैं दोनों की बात सुनता रहा।

उधर चांदीराम कभी तो मुझे और कभी साक्षी को देखता रहा। ....और बस नौगांव पहुंच गई। 

नौगांव

नौगांव लगभग ग्यारह सौ मीटर ऊँचाई पर बसा एक कस्बानुमा गांव है।गांव के पास से ही यमुना नदी बहती है।ये गांव उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले के अंतर्गत आता है।यहां आने के बाद उत्तराखंडी पहाड़ी गांव में उपस्थित होने का अहसास होने लगता है।यहां से एक रास्ता पुरोला जाता है और एक बड़कोट।बड़कोट की दूरी यहां से लगभग 10 किलोमीटर है। 

"उसने अपना नम्बर दिया होगा?"-बस से उतरते ही चांदीराम ने मुझसे पूछा। 

 "कालूराम को दिया है।"-मैंने कालूराम की तरफ इशारा करते हुए जवाब दिया। 

 बस पुरोला की ओर चली गयी और हम लोग बड़कोट वाले रास्ते पर खड़े हो गए जहां से हमें बड़कोट के लिए साधन मिलना था।तभी एक बुलेरो वाला आया और हमसे पूछा-"बड़कोट जाना है।" 

"बिल्कुल।" 

 "सभी अपने बैग गाड़ी की छत पर रख दो और बैठ जाओ।" 

 आधे घण्टे बाद बुलेरो ने हमें बड़कोट में उतार दिया। उतरते ही चांदीराम की आवाज आयी- "हमें केदारनाथ का साधन यहीं से मिलेगा क्या?"  
            बड़कोट से थोड़ा आगे अनिल और कालूराम   


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गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता
इस शहर के आंचल में गुजरा जमाना याद नहीं आता
बुढ़ाखेड़ा गेट से चलकर अनाज मंडी की तरफ मुड़ना
गीता भवन के आगे जनमाष्टमी महोत्सव का इंतजार करना
देख कर लीलाएं कृष्ण की मन का भावुक हो जाना
गुजरा जो जमाना रामलीलाओं का वो जमाना याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

अपरोच रोड़ पर रँगा साहब के साथ टहलना
श्याम मंदिर के आगे किसी का इंतजार करना
सारा दिन बच्चों को गणित के सवाल समझाना
शाम होते ही खुद बच्चे बन जाना अब याद नही आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

पुरानी मंडी और हनुमान का मंदिर
गोलमण्डी और बाबा श्याम का जागरण
मोचियों वाली गली और सजी हुई दुकानें
निकल कर बारहहट्टे से फिर अपरोच रोड़ आ जाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

वो भेरी अकबरपुर का मेला वो बाबा रामदेव का मंदिर
वो फाटक के पास से ही भीड़ का हो जाना
वो मेले में साथिओं के साथ घूम कर आना
वो गुब्बारे हाथ में लेकर हवा में लहराना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

चौबीसी की सड़कों पर वो साइकिल चलाना
बसअड्डे तक बेकार में घूम के आना
रेल पटरियों के किनारे शामों का बिताना
गीता भवन के पीछे गोलगप्पे खाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

वो पूर्णमासी और मंगलवार का आना
सुरेवाला गांव के बाला जी धाम में जाना
वो हनुमान चालीसा पढ़ना और शीश नवाना
वो दोनों हाथों से प्रसाद लेकर खाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

वो बाबा गोकल नाथ का अखाड़ा
वो बुढ़ाखेड़ा चौक का नज़ारा 
वो कांवड़ियों का आना और शिवालय में जल का चढ़ाना
वो आधी रात को मणी पंडित के मंदिर से चरणामृत का लाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

वो श्रवण का पानी लेकर आना
राम को बनवास हो जाना
लक्ष्मण का मूर्छित हो जाना हनुमान का संजीवनी लाना
दशहरे के दिन चौबीसी में रावण को जलाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

कुमार सिनेमा के बाहर पोस्टरों को निहारना
राजलक्ष्मी में छुप कर फिल्में देख कर आना
रामलीला के बहाने शहर की गलियों में धक्के खाना
डोरबेल बजा कर लोगों को नींद से उठाना और फिर भाग जाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नही आता

वो 26 जनवरी और 15 अगस्त का आना
वो अनाज मंडी में तिरंगा फहराना
वो बच्चों का कार्यक्रम में नाच दिखाना
वो सबसे पीछे खड़े होकर ताली बजाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

संजय शर्मा'पारीक'