सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

यमुनोत्री से गंगोत्री 2: बड़कोट तक का सफर

इस यात्रा वृतांत को शुरू से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
छुटमलपुर:पकोड़ों का मुआयना करता चांदी राम


बस सुबह अपने निर्धारित समय पर  विकासनगर से चल पड़ी।बस बड़कोट  नहीं जाएगी सिर्फ नौगांव तक ही जाएगी।ये बात कंडक्टर ने टिकट काटते हुए बताई।उसने ये भी बताया कि नौगांव पहुंचते ही आपको बड़कोट के लिए कैब टाइप कोई ना कोई साधन तुरन्त मिल जाएगा।वहां से बड़कोट सिर्फ 20 मिनट के रास्ते पर है।हमें इस बात से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा।हमें कोई जल्दी नहीं थी।आराम से ही जाना है तो फिर काहे का तनाव। 

 सुबह उठकर सबसे पहले मैंं नहा लिया था बाकी चारों को बाहर से लाकर चाय भी पिलाई थी।चाय देखकर चांदीराम बहुत खुश हुआ था।वो कुछ समय के लिए केदारनाथ को भी भूल गया था।बस में सीट आरक्षण का एक ही आधार था पहले आओ पहले पाओ।या पहले आके सीट पर अपना कोई सामान रख दो।हमने दूसरे तरीके को अपनाया था। बस के चलने से लगभग 5 मिनट पहले बस लगभग भर चुकी थी।मैं ड्राइवर के बाऐं वाली सीट पर दूसरे नम्बर पर बैठा हूँ।मेरे से आगे एक छोटा सा लड़का बैठा है जो 7वीं कक्षा का विद्यार्थी है।कालू राम जी बोनट पर बैठे हैं।उन्हें कुदरत के लुभावने नज़ारों का आनन्द लेना है। जिस सीट पर मैं बैठा हूँ वहां बैठ तो ढंग से 3 ही आदमी सकते हैं।3 बैठ भी चुके हैं लेकिन कंडक्टर का मानना है कि ये 4 सवारियों की सीट है।लेकिन कम जगह देखकर वहां कोई नहीं बैठता।कुछ लोकल सवारियां खड़ी भी हैं जिन्हें आसपास के गांव तक ही जाना है।

चांदी राम ड्राइवर के पीछे खिड़की वाली सीट पर विराजमान है।अनिल और राजेंद्र उसी लाइन पर थोड़े पीछे एक साथ बैठे हैं।जब बस चलने लगी तभी एक लड़की छोटा सा बैग हाथ में लिए हुए बस में सवार हुई।कंडक्टर ने हमारी सीट की तरफ इशारा कर दिया कि वहां बैठ जाओ एक सीट खाली है।नतीजतन थोड़ी ही देर में वो मेरे और मेरे पास बैठे दूसरे व्यक्ति के बीच में फिट हो चुकी है। 

 बस विकासनगर से निकल चुकी है और सड़क के दोनों ओर की इमारतों का स्थान हरे भरे खेतों ने ले लिया है। 

 "पहाड़ी रास्ता कब शुरू होगा"-कालू राम मुझसे पूछ रहा था। 

 "बस 3-4 किलोमीटर बाद शुरू हो जाएगा"-मैं कुछ बोलता उससे पहले ही ड्राइवर ने जवाब दे दिया। 

 कालूराम की ये पहली पर्वतीय यात्रा थी इस लिए वो पहाड़ों से मिलने के लिए बेकरार था।इस समय दिन पूरी तरह निकल चुका था। इसी बीच मेरा ध्यान चांदीराम की तरफ गया।उसका ध्यान भी मेरी ही तरफ था।  

मैंने पूछ लिया-"चांदीराम सब ठीक-ठाक है?" चांदीराम ने मुंह से जवाब देना जरूरी नहीं समझा बस हां में गर्दन हिला दी।

इस समय चांदीराम बोलने की बजाय बस देखने के मूड में है।कभी खिड़की के बाहर प्राकृतिक दृश्य देखने लगता है तो कभी मेरे पास बैठी लड़की को और कभी बुरा सा मुंह बनाके मुझे देख लेता है। बस को चले लगभग आधा घण्टा हो चुका है।पहाड़ी मार्ग भी शुरू हो चुका है।कालूराम का रोमांच शब्दों के जरिये उसके मुंह से बाहर निकलने लगा है। 

 "यो तो कसुता मोड़ था यार।जे कोई आपणा ला ड्राइवर होंदा तो बस खाई म पड़ी मिलदी।"-कालूराम ने बस के ड्राइवर की बड़ाई में या यूं कह सकते है कि मैदानी ड्राइवरों पर अविश्वास जताते हुए कहा। 

 वैसे उसके शब्दों की बजाए उसके चेहरे के भाव उसके मन में चल रहे कौतूहल को ज्यादा बयान कर रहे थे।मुझे लगने लगा कि कालूराम इन रास्तों को देखकर आश्चर्यचकित होने के साथ साथ डर भी रहा था। कालूराम की बातें सुनकर पास बैठी लड़की जो अब तक चुप बैठी थी।बोलने पर मजबूर हो गयी। 

 "आप लोग घूमने आए हो क्या?"-उसने मुझसे पूछा। 

 "हां, हम लोग यमुनोत्री जा रहे हैं और उसके बाद गंगोत्री जाएंगे।"-मैंने जवाब देते हुए कहा। 

 "वैसे हम लोग हरियाणा से हैं।"-मैंने बात आगे बढ़ाई। 

 "ये मेरे साथी हैं।"-मैंने कालूराम की तरफ इशारा करते हुए कहा।साथ ही ये भी बता दिया कि 3 साथी पीछे बैठे हैं। 

 अब हमारी बातचीत शुरू हो चुकी है।लड़की का नाम साक्षी डिमरी है।डिमरी उसका सरनेम है।इसका गांव नौगांव से भी आगे पुरोला मार्ग पर है।इसके पिताजी पुजारी का काम करते हैं।इसकी एक बहन हरियाणा में ब्याही है।इस लिए इसके मन में हरियाणा के लोगों के लिए सम्मान का भाव है।गांव में सिर्फ इसके दादा दादी रहते हैं।इसके पिता ने गांव को छोड़कर विकासनगर में मकान बना लिया है।इसका एक महत्वपूर्ण कारण बच्चों की पढ़ाई और गांव में सुविधाओं का अभाव होना है।साक्षी संगीत की छात्रा है तथा स्नातक तृतीय वर्ष में है। 

 पहाड़ो में पलायन

 पहाड़ो में सुविधाओं का अभाव होना और जीवन कठोर होने की वजह से साल दर साल भारी संख्या में पलायन पिछले कई सालों से हो रहा है।पलायन की वजह से गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं।सरकार की सुस्ती ने पलायन बढाने में आग में घी का काम किया है।पहाड़ी युवा पहाड़ों में नहीं रहना चाहता।युवाओं की सोच अपने पूर्वजों की तरह पहाड़ में रहकर कठोर जीवन जीने की नहीं रही। उनको लगता है कि दिल्ली,देहरादून और हल्द्वानी जैसे शहर उनके सपनों को पूरा कर सकते है।यही सोच पहाड़ी युवा लड़कियों की है।वो भी पहाड़ी ससुराल की बजाए मैदानी ससुराल को ज्यादा महत्व देती हैं ताकि उन्हें कठोर जीवन ना जीना पड़े। 

 डेढ़-दो घण्टे चलने के बाद बस एक जगह विश्राम के लिए रुकी।यहां 3-4 छोटे छोटे होटल और दुकानें थीं।सुबह विकासनगर में सभी ने बस चाय ली थी सोचा कुछ खा लेते हैं।मैंने साक्षी को भी आमंत्रित किया कि वो भी हमारे साथ कुछ ले ले।एक दुकान में हमनें ठंडे का ऑर्डर दे दिया साथ में कुछ नमकीन।यहां मैंने साक्षी का परिचय सभी से करवाया।चांदीराम से भी। वहां बैठे बैठे मैंने जलने की कुछ बदबू सी महसूस की। कुछ ही देर में तो बदबू बहुत ज्यादा हो गयी।क्या जल रहा है कुछ समझ नहीं आया।फिर थोड़ा नाक पर जोर दिया तो महसूस हुआ चांदीराम की तरफ से जलने की बदबू आ रही है।मुझे समझने में कोई देर नहीं लगी। 

 "कोई बात नहीं बेटा,अभी तो और भी जलना है।"-मैंने ये बात मन में ही रख ली चांदीराम से नहीं कही। 

 "साक्षी,हमारे चांदीराम जी अभी तक अविवाहित हैं।आपके पहाड़ो में इनके लायक कोई लड़की है तो बताओ।"-राजेन्द्र ने चांदीराम के प्रति अपनत्व दिखाते हुए साक्षी से कहा। 

 "इन्होंने जब से राम तेरी गंगा मैली फ़िल्म देखी है,कसम खा ली है कि शादी किसी पहाड़ी मंदाकिनी से ही करूंगा।है कोई मंदाकिनी आपकी नजर में इनके लायक?"-आवाज कालूराम की थी। 

 दोनों की बात सुनकर साक्षी ने चांदीराम को गौर से देखा।चांदीराम ने बाल ठीक करने के लिए अपना बायां हाथ उठाया और फिर कुछ सोचकर वापिस नीचे कर लिया।शायद शर्म आ गयी थी। 

 इससे पहले की वो कोई जवाब देती कंडक्टर ने सिटी बजा दी।सभी बस की ओर चल पड़े। 

 बस चलने के बाद साक्षी मुझसे पूछने लगी-"क्या ये सच में कंवारे है?" 

 "हाँ।"-मेरा जवाब था। 

 "इन्होंने शादी क्यों नहीं की?"-उसने अगला प्रश्न दाग दिया। 

"आपके गांव तक गाड़ी जाती है या उतर कर पैदल चलना पड़ता है?"-कालूराम की आवाज थी।वो साक्षी से पूछ रहा था। 

 "जहां बस उतारेगी वहां से 2 किलोमीटर पहाड़ पर पैदल चढ़ना पड़ेगा तब जाकर घर पहुंचूंगी।"-साक्षी ने जवाब दे दिया। 

 कालूराम अब भी संतुष्ट नहीं हुआ,बोला-"फिर आप लोग अपने साधन कहाँ खड़े करते हो?या रखते ही नहीं हो?" 

 "नहीं रखते तो हैं लेकिन नीचे सड़क पर ही खड़े करते हैं कोई जगह देख के।"-साक्षी का जवाब था।  

"चोरी का डर नहीं होता?"-फिर अगला सवाल। 

 कालूराम सवाल पूछता रहा।साक्षी जवाब देती रही।मैं दोनों की बात सुनता रहा।

उधर चांदीराम कभी तो मुझे और कभी साक्षी को देखता रहा। ....और बस नौगांव पहुंच गई। 

नौगांव

नौगांव लगभग ग्यारह सौ मीटर ऊँचाई पर बसा एक कस्बानुमा गांव है।गांव के पास से ही यमुना नदी बहती है।ये गांव उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले के अंतर्गत आता है।यहां आने के बाद उत्तराखंडी पहाड़ी गांव में उपस्थित होने का अहसास होने लगता है।यहां से एक रास्ता पुरोला जाता है और एक बड़कोट।बड़कोट की दूरी यहां से लगभग 10 किलोमीटर है। 

"उसने अपना नम्बर दिया होगा?"-बस से उतरते ही चांदीराम ने मुझसे पूछा। 

 "कालूराम को दिया है।"-मैंने कालूराम की तरफ इशारा करते हुए जवाब दिया। 

 बस पुरोला की ओर चली गयी और हम लोग बड़कोट वाले रास्ते पर खड़े हो गए जहां से हमें बड़कोट के लिए साधन मिलना था।तभी एक बुलेरो वाला आया और हमसे पूछा-"बड़कोट जाना है।" 

"बिल्कुल।" 

 "सभी अपने बैग गाड़ी की छत पर रख दो और बैठ जाओ।" 

 आधे घण्टे बाद बुलेरो ने हमें बड़कोट में उतार दिया। उतरते ही चांदीराम की आवाज आयी- "हमें केदारनाथ का साधन यहीं से मिलेगा क्या?"  
            बड़कोट से थोड़ा आगे अनिल और कालूराम   


 अगला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता
इस शहर के आंचल में गुजरा जमाना याद नहीं आता
बुढ़ाखेड़ा गेट से चलकर अनाज मंडी की तरफ मुड़ना
गीता भवन के आगे जनमाष्टमी महोत्सव का इंतजार करना
देख कर लीलाएं कृष्ण की मन का भावुक हो जाना
गुजरा जो जमाना रामलीलाओं का वो जमाना याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

अपरोच रोड़ पर रँगा साहब के साथ टहलना
श्याम मंदिर के आगे किसी का इंतजार करना
सारा दिन बच्चों को गणित के सवाल समझाना
शाम होते ही खुद बच्चे बन जाना अब याद नही आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

पुरानी मंडी और हनुमान का मंदिर
गोलमण्डी और बाबा श्याम का जागरण
मोचियों वाली गली और सजी हुई दुकानें
निकल कर बारहहट्टे से फिर अपरोच रोड़ आ जाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

वो भेरी अकबरपुर का मेला वो बाबा रामदेव का मंदिर
वो फाटक के पास से ही भीड़ का हो जाना
वो मेले में साथिओं के साथ घूम कर आना
वो गुब्बारे हाथ में लेकर हवा में लहराना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

चौबीसी की सड़कों पर वो साइकिल चलाना
बसअड्डे तक बेकार में घूम के आना
रेल पटरियों के किनारे शामों का बिताना
गीता भवन के पीछे गोलगप्पे खाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

वो पूर्णमासी और मंगलवार का आना
सुरेवाला गांव के बाला जी धाम में जाना
वो हनुमान चालीसा पढ़ना और शीश नवाना
वो दोनों हाथों से प्रसाद लेकर खाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

वो बाबा गोकल नाथ का अखाड़ा
वो बुढ़ाखेड़ा चौक का नज़ारा 
वो कांवड़ियों का आना और शिवालय में जल का चढ़ाना
वो आधी रात को मणी पंडित के मंदिर से चरणामृत का लाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

वो श्रवण का पानी लेकर आना
राम को बनवास हो जाना
लक्ष्मण का मूर्छित हो जाना हनुमान का संजीवनी लाना
दशहरे के दिन चौबीसी में रावण को जलाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

कुमार सिनेमा के बाहर पोस्टरों को निहारना
राजलक्ष्मी में छुप कर फिल्में देख कर आना
रामलीला के बहाने शहर की गलियों में धक्के खाना
डोरबेल बजा कर लोगों को नींद से उठाना और फिर भाग जाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नही आता

वो 26 जनवरी और 15 अगस्त का आना
वो अनाज मंडी में तिरंगा फहराना
वो बच्चों का कार्यक्रम में नाच दिखाना
वो सबसे पीछे खड़े होकर ताली बजाना अब याद नहीं आता
आजकल उकलाना शहर याद नहीं आता

संजय शर्मा'पारीक'


मंगलवार, 19 नवंबर 2019

यमुनोत्री से गंगोत्री 1: विकासनगर की रात

जितना जरूरी धरती के लिए सूर्य के चारों ओर चक्कर काटना है और जितना जरूरी इस सृष्टि के लिए दिन और रात का बनना है।शायद उतना ही जरूरी चांदी राम के लिए केदार नाथ जाना है।चांदी राम को कई दिनों से लगने लगा है कि अगर वो इस जीवन में केदारनाथ नहीं जा पाया तो उसका इस धरती पे आना व्यर्थ हो जाएगा।
मई 2019 की एक शाम-

विनोद के प्रधानमंत्री जनऔषधालय में बैठे बैठे चांदीराम ने धरती पे अवतरित होने का अपना  मकसद अनिल को बताया।

'तैयारी कर ले अगले महीने चलना है'-अनिल ने चांदी राम का मनोबल बढाते हुए कहा।

'पक्का चलेंगे?'-शायद चांदीराम को अनिल की बात पे यकीन नहीं हुआ।

'चांदीराम तन यार अनिल की बात प यकीन कोनी, क्या आजतक ईसा होया ह के अनिल कोई बात कही हो और वो ना होई हो,तू तयारी कर आगले महीने चालना ह तो चालना ह बस'-विनोद ने अनिल की बात पर आधिकारिक मोहर लगाते हुए चांदीराम को भरोसा दिलाया।

जून 2019 का नौवां दिन-

रात के साढ़े 9 बजे के करीब विकास नगर काफी शांत लग रहा है।इस शहर की शांति के अलावा भी कुछ कारण हैं जिनकी वजह से ये शहर मुझे अच्छा लगा है।अभी उन पर चर्चा करना ठीक नहीं लग रहा।खैर! फिलहाल मैं और अनिल होटल से निकल कर बाहर आ गए हैं।हमें एक ठेके की तालाश है वो भी अंग्रेजी ठेके की।बाहर एक ढाबे पे काम करने वाले छोटू टाइप बच्चे ने हमें ना केवल ठेके का रास्ता बता दिया है बल्कि हाथ के इशारे से दिखा भी दिया है कि वही वो ठेका है जिसकी आपको तालाश है।हमें तालाश जरूर है लेकिन अगर यहां ठेका ना भी होता तो भी हमें कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ना था।जिन लोगों को फर्क पड़ना है वो लोग होटल में बैठे हैं और वो लोग हमारे वापिस आने की प्रतीक्षा उसी बेसब्री से कर रहें हैं जिस बेसब्री से गोपियां श्रीकृष्ण के आने की प्रतीक्षा करती थीं।

कुछ ही देर हम दोनों ठेके के जंगले के पास 
खड़े थे।अनिल ने एक विशेषज्ञ की तरह ठेके वाले से कुछ देर बात की उसके बाद सामान लिया,पैसे दिए और मुझे वापिस चलने का आदेश दे दिया।

'नमकीन में क्या कुछ लेना ठीक रहेगा'-चलते चलते अनिल ने मुझसे सुझाव मांगा।

'एक सब्जी ले लेते हैं,2-3 पैकेट मूंग की दाल ले लेंगे,एक आधा कोई और आइटम देख लेंगे'-मैनें गंभीरता से एक बहुमूल्य सुझाव अनिल के सामने पेल दिया।

यहां मेरा सुझाव बस उतना ही महत्व रखता था जितना महत्व कांग्रेस राज में राजमाता  के समक्ष मनमोहन के विचारों का होता था।फैसला तो अनिल हमेशा ले ही चुका होता है बस राय लेने का एक मात्र कारण यही होता है कि सभी को यही लगे कि सबकुछ लोकतांत्रिक तरीके से हो रहा है।वही लोकतंत्र जो आपातकाल के समय इंदिरा गांधी की जनसभाओं में सुनने को मिलता था।होटल में पहुंचने से पहले अनिल ने नमकीन सहित सारा जरूरी सामान खरीद लिया और हमने होटल की ओर कूच किया।

कमरे में 3 लोग हमारा इंतजार कर रहे हैं उनमें से पहले नम्बर पर चांदीराम जी हैं जो किसी परिचय के मोहताज नहीं है।दूसरे साथी है राजेन्द्र पात्तड़ और तीसरे नम्बर पर आते हैं कालूराम।चांदीराम आजकल विनोद का प्रधानमंत्री जन औषधालय सम्भाल रहे हैं।राजेन्द्र और कालूराम निजी स्कूलों में अध्यापन कर रहे हैं।राजेन्द्र उकलाना के एक प्राइवेट स्कूल में है जबकि कालूराम हाँसी में एक प्रतिष्ठित निजी स्कूल के बच्चों का सामाजिक विज्ञान पढ़ाता है।कालूराम ने मेरे और अनिल के साथ पूर्व मल्टीमीडिया काल में बीएड की थी।तभी से हमारा याराना बरकरार है।

हमारे होटल के बाहर एक मिनी बस खड़ी है जो सुबह हमें बड़कोट लेकर जाएगी।बस के चलने का समय साढ़े 5 बजे का है।हमारी मुलाकात बस के ड्राइवर और कंडक्टर से नहीं हुई है।होटल के बाहर एक-दो होटल और हैं जो सिर्फ खाने के लिए हैं उन्ही होटल के लोगों द्वारा हमें ये जानकारी मिली है।हमें ये भी पता चल गया है कि हमें पहले सीट बुक करवानी की आवश्यकता नहीं है।बस में प्रायः आसानी से सीट मिल जाती हैं।हम लोग सुबह उकलाना से चले थे।छुटमलपुर तक हरियाणा रोडवेज में आये।उसके बाद देहरादून तक एक निजी वाहन में।देहरादून में एक ऑटो वाले का सुझाव मानकर हम लोग विकास नगर पहुंचे।ऑटो वाले ने बताया था कि वहां सुबह जल्दी ही यमुनोत्री के लिए साधन मिलना शुरू हो जाते हैं।वहां होटल भी देहरादून की उपेक्षा बहुत सस्ते मिल जाएंगे।ऑटो वाले की बात काफी हद तक सही निकली।

हमारे कमरे पर पहुंचते ही सभी के चेहरे पर एक अलग ही मुस्कान घर कर गयी।ये मुस्कान उस सामान के कारण थी जो हमारे हाथ में था।
इस कमरे में 2 कमरे एक साथ मिले हुए थे।एक कमरे में 3 बेड थे तथा दूसरे में 2 बेड।दोनों कमरों को जोड़ने वाला बीच में एक दरवाजा था।हमें ये कमरा मात्र 500 रुपये में आसानी से मिल गया था।साफ सफाई भी एक नम्बर की थी।चांदीराम के लिए ये भी खुश होने के कारणों में से एक था।

कार्यक्रम शुरू होने से पहले राजेन्द्र ने कहा-"कल के कार्यक्रम की रूपरेखा बता दी जाए तो ठीक रहेगा।फिर उसी हिसाब से सुबह नहाना धोना कर लेंगे।"

"भाइयों को सारी डिटेल बता दे अच्छी तरह"- अनिल ने मुझे इशारा करते हुए कहा।

"कल बाहर खड़ी बस साढ़े 5 बजे चलेगी।इस बस द्वारा हम बड़कोट पहुंचेंगे।उसके बाद यमुनोत्री और अगले दिन गंगोत्री के लिए प्रस्थान करेंगे।सभी को सुबह 4 बजे उठना है और तैयारी करनी है।"-मैंने कम शब्दों पूरी बात बता दी।

"केदारनाथ कब जाएंगे?"चांदीराम प्रश्नवाचक नज़रों से सभी को ताक रहा था।

"गंगोत्री के बाद केदारनाथ तो चलना ही है"-अनिल ने चांदीराम की शंका का समाधान करते हुए कहा।

चांदीराम के कलेजे में ठंडक पड़ते ही कालूराम ने अपने हाथों से पैक बनाते हुए कार्यक्रम का शुभारम्भ कर दिया।साथ ही एक हिदायत भी दे कि उतनी ही लेना जितनी ओट सको।

साथ ही अनिल ने फतवा जारी करते हुए कहा-"जितनी पीनी हो पी लेना आगे चारधाम यात्रा शुरू हो जाएगी।कोई नही पिएगा।"

ये बात सुनते ही राजेन्द्र और कालूराम को सांप सूंघ गया जैसे उनका अपनी प्रेयसी से ब्रेकअप हो गया हो।दोनों ने कातर नज़रों से मेरी तरफ देखा।

"चिंता मत करो,सब ठीक होगा।इत्मीनान रखो"-मैंने उनको विश्वास दिलाते हुए कहा।

मेरी बात सुनकर दोनों की जान में जान आयी।इधर मैं सोच रहा हूँ चलनी तो अनिल की ही है पर आश्वासन से किसी को खुशी मिलती है तो अपना क्या जाना है।

सभी 2-2 पैक ले चुके हैं और मैंने घोषणा कर दी है कि अब मेरी और लेने की आसंग नहीं है।

"तुझसे यही उम्मीद थी।खत्म हो चुका है अब तू।महफ़िल में बैठने के लायक नहीं रहा।"-चांदी राम ने मुझ पर कटाक्ष करते हुए कहा।

"चांदीराम की बात से मैं हंडर्ड प्रतिशत सहमत हूं।बामण कोई काम गा कोनी रया ईब।"-कालूराम ने चांदीराम का साथ देते हुए कहा।

कुल मिला कर मुझे तीसरा पैक लेने के लिए मजबूर कर दिया गया है।ये अहसान करते हुए की छोटा सा बनाया है,तीसरा पैक पकड़ा दिया गया।उधर चांदीराम ऐसे खुश है जैसे उसने कोई राष्ट्रहित का काम कर दिया हो।

3 पैक अंदर जाने के बाद चांदीराम के चेहरे पर अलग ही भाव नज़र आने लगे हैं।मैं लेट गया हूँ।मुझे छोड़कर सभी गहन मन्त्रणा में व्यस्त हैं।कालूराम कह रहा है कि आज बहुत अच्छा लग रहा है काफी समय बाद दोस्तों से मिला हूँ।इधर अनिल कुछ कह रहा है।राजेन्द्र कुछ कह रहा है।बातों की खिचड़ी पक रही है।

मैं अर्धनिंद्रा में लेटा हुआ हूँ।शायद उन लोगों ने चौथा पैक बना लिया है।ऐसा मुझे कुछ कुछ अहसास होता है।उनकी बातें लगातार जारी हैं।

"पहले हम केदारनाथ ही जाएंगे।"-जोर से आवाज आई।

मैं चमक गया लगा कोई आकाशवाणी हुई है।मैं उठ गया और सभी की तरफ देखा।चांदीराम का चेहरा आवेश में तमतमा रहा था।चांदीराम की नजरें अनिल की ओर थी।मुझे लगा अगर चांदीराम ने अपनी नज़रे कुछ समय तक इसी तरह अनिल की तरफ गड़ाए रखी तो अनिल भस्म हो जाएगा।कालूराम और राजेंद्र भी एक पल के लिए मानो पत्थर बन गए थे।चांदीराम के अंदर का विश्वामित्र बाहर आ चुका था।अनिल ने मौके की नज़ाक़त को भांपते हुए हथियार डाल दिये और कहा-"पहले केदारनाथ ही चलेंगे।"

इससे भी शायद चांदीराम को यकीन नहीं हुआ और उसकी स्थिति टस से मस नहीं हुई।

अनिल ने मुझे आदेश देते हुए कहा-"कार्यक्रम कुछ इस प्रकार बना कि पहले केदारनाथ आये और यमुनोत्री-गंगोत्री बाद में।"

मैंने कहा ऐसा ही होगा।

चांदीराम इतना सुनने के बाद शांत होने लगा।अनिल ने अगला फरमान सुनाया-"जल्दी से लास्ट पैक बनाओ और सो जाओ सुबह जल्दी उठना है।"

अनिल चांदीराम से कोई पंगा नहीं लेना चाहता था।


यात्रा में चलने से पहले विनोद के मेडिकल के आगे

अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

गुरुवार, 16 मई 2019

अजमेर-पुष्कर यात्रा-4(पुष्कर)

इस यात्रा वृतांत को शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
सावित्री मन्दिर के रास्ते में

पुष्कर में दूसरे दिन की शुरुआत कुल्हड़ में गर्मागर्म चाय के साथ होती है।चाय हमारे पास नही आई हमें ही चायवाले के पास जाना पड़ा,जो धर्मशाला के मुख्य दरवाजे के पास चाय बना रहा था।कुल्हड़ में चाय पीने के 5 रुपये अलग से देने पड़े।

8 बजे तक सभी नहा धोकर तैयार हो चुके थे।हमने कमरा खाली कर दिया।अपना सामान हम लोगों ने धर्मशाला के दफ्तर में रख दिया और बोल दिया कि जब हम सावित्री मन्दिर जाकर वापिस आएंगे तब ले लेंगे।बाहर ठंड बहुत ज्यादा है।धर्मशाला के बाहर बहुत सी खाने पीने की दुकानें हैं।बहुत से दुकान वालों ने अपनी दुकानों के बाहर हाथ गर्म करने के लिए अलाव लगा रखे हैं।थोड़ी देर सभी ने अलाव का आनन्द लिया।साथ ही सुबह के नाश्ते के बारे में विचार किया गया।तभी मेरा ध्यान राजस्थान सरकार द्वारा संचालित अन्नपूर्णा रसोई की ओर गया।अन्नपूर्णा रसोई की लाल रंग की गाड़ी वहीं पास ही खड़ी थी।उस गाड़ी में 5 रुपये का नास्ता और 8 रुपये के खाना उपलब्ध था।हमें लगा कि हमें सरकार की इस योजना का मुआयना करना ही चाहिए।30 रुपये की 6 प्लेट ले ली गयी।नास्ते में पोहे थे साथ में कुछ और भी था।क्या था अब याद नहीं आ रहा।इतना तो याद है कि गुणवत्ता अच्छी थी।उसके बाद सभी ब्रह्मा मन्दिर की और चल पड़े।मन्दिर में प्रवेश के लिए सीढियां बनी हुई है।बाहर बहुत से प्रसाद की दुकानें हैं।मन्दिर में कैमरे के प्रयोग पर पाबंदी थी।मन्दिर में ज्यादा भीड़ नही थी।अंदर दीवारों पर हिंदी,उर्दू आदि भाषाओं में दानकर्ताओं के नाम लिखे हुए थे।10-15 मिनट का लंबा समय मन्दिर परिसर में बिता का हम लोग बाहर आ गए।

अब हमारा विचार सावित्री मन्दिर जाने का था।ब्रह्मा मन्दिर के पीछे एक पहाड़ी पर सावित्री मन्दिर बना है।ऊपर चढ़ने के लिए सीढियां बनी हुई है।लगभग डेढ़ किलोमीटर की ही चढाई है।पिछले कुछ समय से मन्दिर जाने के लिए रोप वे भी बना दिया गया है।अब दर्शनार्थियों के पास ऊपर जाने के लिए दोनों विकल्प उपलब्ध हैं।मतलब ये है कि अगर आपकी पैदल चलने की आसंग नही है तो आप रोप वे का प्रयोग कर सकते हैं।बस आपको उसके लिए कुछ शुल्क देना पड़ेगा।

     फैंसला ये हुआ चूंकि शमशेर के पांव में दिक्कत होने की वजह से उसके लिए सीढियां चढ़ना आसान नहीं होगा इसलिए शमशेर रूप वे से जाएगा और सभी लोग पैदल कूच करेंगे।मोंटू ने भी आवाज उठाई की मेरे लिए भी रोप वे से जाना ही उचित रहेगा।मुझे भी सीढियां चढ़ने में समस्या आ सकती है।मोंटू 90 किलो का एक आलसी आदमी है।2 कदम पैदल चलकर भी राजी नहीं है।लेकिन वो सीढियां चढ़ सकता है उसे कोई दिक्कत नहीं होगी।हाँ अगर सीढ़ियों को दिक्कत हो जाये तो कुछ कहा नही जा सकता।खैर मोंटू की आवाज दबा दी गयी है।अब उसे पैदल ही ऊपर जाना होगा।
    इस समय साढ़े 9 बजने वाले होंगे और हम लोगों ने ऊपर चढ़ना शुरू कर दिया है।शमशेर को रोपवे ऑफिस में छोड़ चुके हैं।ज्यादा जोरदार चढाई नहीं है।हम आराम से सीढ़ियां चढ़ते जा रहे हैं।हमें चलते हुए 5-7 मिनट ही हुए है तभी हम शमशेर को रोपवे की टोकरी में ऊपर चढ़ते हुए देखते हैं।उसे देखकर मोंटू आहें भर रहा है।अगर चुस्ती की बात करें तो अजय को आलसहीन कहा जा सकता है।अजय सबसे पहले उठ जाता है और नहा लेता है।मोंटू को छोड़कर हम सभी ने बहुत सी यात्राएं एक साथ की हैं।अजय हमेशा सब से पहले उठ जाता है या ये भी हो सकता है कि सोता ही ना हो।विनोद शारीरिक रूप से हल्का है इसलिए इसको चलने में कभी कोई दिक्कत नहीं आती।वैसे चलने में और चढ़ने में हम सभी एक जैसे ही हैं।अनिल शारीरिक रूप से फिट है।शरीर में फुर्ती भी है।शमशेर के पांव में दिक्कत होने की वजह से उसको चढाई में दिक्कत आती है।समतल में चलने में वी भी पूरी तरह सक्षम है।अब बात रही मेरी,तो मेरी खास बात ये है कि मैं अपने मुंह से अपनी बड़ाई कभी नही करता।

      हम ऊपर चढ़ते जा रहें है और साथ ही बीच-बीच में रुककर फ़ोटो भी ले रहें हैं और सेल्फियां भी।हमें रास्ते मे विदेशी पर्यटक भी मिल जाते है।मोंटू एक दो के साथ फोटो भी लेता है।बीच बीच में हम नीचे पुष्कर शहर को देखते हैं।पुष्कर का नज़ारा बहुत मस्त लगता है और उससे भी मस्त लगता है ब्रह्म सरोवर को देखना।वास्तव में ब्रह्म सरोवर ऊपर से देखने में बहुत मनमोहक लगता है।

हम आधी से भी ज्यादा दूरी तय कर चुके है तभी पीछे से एक अंग्रेज सिर्फ कैपरी पहने हुए अर्धनग्न अवस्था में दौड़ता हुआ हम से आगे निकल जाता है।हम उसे आवाज भी देते है मगर वो नही रुकता।उसकी गति कहीं भी कम नही होती।वो थोड़ी ही देर में हम से काफी आगे निकल गया।हम चलते रहते हैं।बीच बीच में हम उस अंग्रेज को भी देखने की कोशिश करते है।वो अपनी उसी गति से भागता हुआ चला है रहा है।हम उसे मन्दिर तक वैसे ही जाते हुए देखते हैं।तभी अनिल मुझसे कहता है-

"ये होती है फिटनेस"
"मुझे क्या कह रहा है फिर,मोंटू को समझा।"
"तू भी मोंटू का ही भाई है।"
"तो तू क्या मुझसे कम है फिर।"

इसी तरह बातें करते हुए हम लोग मन्दिर की नजदीक पहुंच जाते हैं।आखिर की चढ़ाई थोड़ी मुश्किल लगती है।खैर लगभग 40-45 मिनट में हम लोग मन्दिर पहुंच जाते है।शमशेर बहुत पहले ही पहुंच चुका है।वैसे इतना समय नहीं लगता लेकिन हम आराम में मस्ती करते हुए आये हैं तब इतना समय लग गया।मन्दिर से पूरा पुष्कर नज़र आ रहा है।हम लोग मन्दिर में और आस पास पहाड़ी पर घूमते हैं।जिसे माता के दर्शन करने थे वो दर्शन भी कर चुका है।मन्दिर में हमें वो अंग्रेज भी मिलता है जो भागता हुआ ऊपर आया था।लेकिन उससे कोई बात नही होती।मन्दिर में एक विदेशी जोड़ा भी मौजूद है।मैं और शमशेर उन से बातें करते हैं।बातों में ही पता चलता है कि वो लोग दम्पति ना होकर अच्छे दोस्त हैं।मोंटू की उनके साथ भी फ़ोटो लेने की इच्छा होती है।मोंटू के साथ बाकी सभी भी उनके साथ फोटो खिंचवाते हैं।कुछ समय मन्दिर में बिताने के बाद वापिस चलने का विचार बनता है।मोंटू कहता है मैं रोपवे से जाऊंगा।मेरी जाने की टिकट कटवा दो।चलो कटवा देते हैं भाई।मोंटू का दुर्भाग्य ऊपर टिकट नहीं कटती।नीचे ही कटती है और वो भी दोनों तरफ की मतलब आने जाने की।फिर मोंटू रोपवे के कर्मचारी से अनुरोध करता है कि मुझे भी मेरे साथी के साथ बैठने दो क्यों कि लगभग सीटें खाली ही थीं।कर्मचारी ने मना कर दिया कि ये मेरे हाथ में नहीं है।निराश के भाव लिए मोंटू भी हमारे साथ चल पड़ता है।लगभग 20 मिनट में हम नीचे पहुंच जाते हैं।धर्मशाला की तरफ जाते हुए रास्ते मे एक होटल पर खाना खाया गया।मोंटू को इस यात्रा में दाल-बाटी-चूरमा बहुत पसंद आया।यहां पर भी उसने दाल-बाटी की ही फरमाइस की।इच्छा पूरी कर दी गयी।धर्मशाला से बैग उठाई और पुष्कर बस स्टैंड पहुंच गए।शाम को सवा छह बजे जयपुर से हिसार के लिए सवारी गाड़ी है।हमारा इरादा इसी गाड़ी से वापसी का है।साढ़े 12 बजे के करीब हमारी बस पुष्कर से अजमेर के लिए चल पड़ी।4 बजे के करीब हम लोग जयपुर पहुंच चुके है।जयपुर रेलवे स्टेशन के पास एक होटल में राजस्थानी कचोरी का स्वाद लिया गया।उसके बाद टिकट ली और उस प्लेट फॉर्म पे पहुंच गए जहां से गाड़ी चलनी थी।निर्धारित समय से आधा घण्टा ऊपर हो चुका है लेकिन गाड़ी का अभी कुछ पता नही है।कुछ समय बाद एलान होता है कि हिसार जाने वाली गाड़ी लगभग डेढ़ घण्टा लेट है।लगभग साढ़े सात बजे के करीब गाड़ी प्लेटफॉर्म पे आ चुकी है।इस समय तक सर्दी बहुत ज्यादा हो चुकी है।हम लोग एक डिब्बे पे स्थान प्राप्त कर लेते है।हम लोग बाते करने में व्यस्त हो जाते है।लगभग सवा 8 से ऊपर का समय हो चुका है।तभी एक धीमा सा झटका लगता है।शायद गाड़ी चल पड़ी है.......।

(समाप्त)

अन्नपूर्णा रसोई

ब्रह्मा मन्दिर

अजय सावित्री मन्दिर के रास्ते में

पुराने दोस्त,नई राहें

सावित्री मन्दिर द्वार के पास अनिल

चिंतन करते हुए अन्नू

आज मैं ऊपर आसमां नीचे

सावित्री मन्दिर में विदेशी पर्यटकों के साथ

बुधवार, 15 मई 2019

अजमेर-पुष्कर यात्रा-3(अजमेर)

इस यात्रा वृतांत को शुरू से पढ़ने के लिए  यहाँ क्लिक करें। 

आनासागर झील अजमेर

वर्ष 2018 का पहला दिन,मेरी आँख जयपुर बस अड्डे के पास एक होटल के कमरे में खुलती है। अजय और कुलदीप कमरे में नहीं है।मैं मोबाइल में समय देखता हूं सात बजने में 3 मिनट शेष हैं।मेरा अनुभव कह रहा है कि वो लोग चाय पीने गए हैं।मैं भी गर्म कपड़े और जूते पहन कर होटल से बाहर चाय पीने के लिए निकल जाता हूँ।बस अड्डे के सामने सड़क पर मैं थोड़ी देर उन दोनों की तलाश करता हूँ।असफलता ही हाथ लगती है।एक रेहड़ी वाला चाय बना रहा था मैं उसको चाय के लिए बोल देता हूँ।मेरी चाय खत्म ही होने वाली थी कि अजय और मोंटू भी आ जाते हैं।
ये दोनों जयपुर मेट्रो देखने के लिए चले गए थे।एक दो स्टेशन तक जाकर वापस आ गए थे।जयपुर मेट्रो का सिंधीकेम्प स्टेशन बस अड्डे के पास ही है।मेरा जयपुर कई बार आना हुआ है।कई बार जयपुर मेट्रो में भी सफर किया है।इतनी ही बार दिल्ली मेट्रो में भी किया होगा।फर्क सिर्फ इतना है कि दिल्ली मेट्रो में ज्यादातर जबरदस्त भीड़ रहती है।कई बार तो खड़े होने में भी दिक्कत होती है।इसके विपरीत जयपुर मेट्रो में कभी भीड़ नही होती।सीटें खाली पड़ी रहती है।

मोंटू और कुलदीप पहले भी चाय पी चुके थे।दोबारा फिर से पी।उसके बाद हम तीनों होटल में पहुंचे।बाकी तीनों साथी भी तब तक उठ चुके थे।लगभग 9 बजे तक हम होटल छोड़ चुके थे।बस अड्डे के बाहर एक होटल में नास्ता किया और उसके बाद बस अड्डे में पहुंच गए।

आज हमें अजमेर जाना है और उसके बाद पुष्कर।साढ़े दस बजे हमारी बस अजमेर के लिए चल पड़ी।साढ़े बारह बजे हम लोग अजमेर बस अड्डे के बाहर खड़े हैं और दरगाह-ए शरीफ जाने के लिए ऑटो देख रहे हैं।थोड़ी पूछताछ करने के बाद एक ऑटो वाला दरगाह जाने के लिए तैयार हो जाता है।दरगाह के लिए रास्ता मुख्य बाजार से होकर ही है।रास्ते में एक दो जगह भीड़ भाड़ वाली जगहें भी आती हैं।लगभग आधे घण्टे बाद हम लोग दरगाह-ए-शरीफ में घूम रहे हैं।दरगाह में काफी भीड़ है।दरगाह में घूमने के बाद हम वहां से बाहर आ गए।वैसे दरगाह को देखने के किसी की विशेष रुचि नही थी।चूंकि अजमेर आये हैं तो देखना भी बनता है।दरगाह के पास ही अढ़ाई दिन का झोपड़ा बना हुआ है।वास्तव में ये एक मस्जिद है जो मोहम्मद गौरी के कहने पर कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाई थी।इसका निर्माण 1192 में शुरू होकर 1199 में खत्म हुआ।कहते हैं कि इसका निर्माण संस्कृत महाविद्यालय को तोड़ कर हुआ था।यहां वर्ष में ढाई दिन का उर्स चलता है इसके कारण इसे अढाई दिन का झोपड़ा कहा जाता है।अढाई दिन के झोपड़े को भी बहुत से लोग देखने आए हुए थे।कुछ समय यहां बिता कर हम बाहर निकल गए और आना सागर झील के लिए ऑटो में बैठ गए।
  आनासागर से कुछ पहले विजय स्मारक आता है।हम वहां उतर गए।यहां एक पाकिस्तानी टैंक रखा हुआ है जिस पर पाकिस्तान का झंडा उल्टा है।ये टैंक भारतीय सेना की विजय का प्रतीक है जिसे हमारी सेना ने 1971 की लड़ाई में दुश्मन से छीना था।लगभग आधा घण्टा यहां बिताने के बाद हम लोग पैदल ही आना सागर झील की ओर चल पड़े।कुछ ही देर में हम लोग वहां पहुंच गए।
आनासागर बहुत लंबी चौड़ी कृत्रिम झील है इसका निर्माण पृथ्वीराज चौहान के दादा जी अरुणो राज ने
बारहवीं शताब्दी के मध्य करवाया था।अजमेर शहर भी उन्होंने ही बसाया था।हम लोग कई दूर तक झील के किनारे चलते रहे।झील के किनारे एक तरफ सरकार द्वारा पार्क का निर्माण किया गया है।जहां बहुत से लोग इकट्ठा होते है यहां हमने कई देर फोटोग्राफी की।यहां हमने काफी समय लगा दिया।उसके बाद एक घोड़ा बग्गी पर बैठ कर हम लोग बस अड्डे पहुंचे।
शाम के साढ़े 4 बज चुके हैं और सभी को भूख भी लगी हुई है।बस अड्डे के अंदर ही एक सस्ते से ढाबे पर खाना खाकर हम लोग पुष्कर के लिए एक बस में बैठ गए।बस आनासागर वाले रास्ते से ही पुष्कर की ओर चल पड़ी।थोड़ी देर बाद बस झील के किनारे ही चल रही थी।ऐसा लग रहा था जैसे बस आनासागर की परिक्रमा कर रही हो।बस की खिड़की से आनासागर का रौब देखने से ही बनता था।उसके बाद बस अचानक से पहाड़ी रास्ते की तरफ मुड़ गयी।लगभग 5 मिनट बाद बस पहाड़ी टेढ़े मेढ़े रास्ते से चलती जा रही थी।बीच में कई जगह मनमोहक दृश्य आये।लगभग साढ़े पांच बजे हम लोग पुष्कर बस स्टैंड पहुंच गए।

मैं पहले भी 2 बार पुष्कर आ चुका हूं।बस स्टैंड से निकल कर मैं सभी को लेकर सीधा पुष्कर सरोवर की ओर चल पड़ा।पुष्कर की पतली पतली गलियों में चलते हुए लगभग 10-15 मिनट में हम सरोवर पर पहुंच गए।हिन्दू धर्म में इस सरोवर को बहुत ही पवित्र माना जाता है।कहा जाता है कि इस सरोवर या झील का निर्माण स्वयं ब्रह्मा जी ने करवाया था।संसार का एकमात्र ब्रह्मा मन्दिर भी इस सरोवर से लगभग कुछ सौ मीटर की दूरी पर स्थित है।सरोवर पर बहुत से घाट बने हुए है।हम लोग सीढ़ियों से उतर कर बिल्कुल झील के पास पहुंच गए।तभी एलान हुआ कि सभी लोग पवित्र सरोवर के पानी से दूर हो जाएं आरती शुरू होने वाली है।आरती के बाद हम लोग सरोवर के आस पास घूमने लगे।पुष्कर की एक खास बात ये भी है कि यहां विदेशी सैलानी बहुत अधिक मात्रा में आते हैं।उस समय भी वहां पर बहुत से विदेशी लोग विचरण कर रहे थे।हम लोगों ने उनसे बातें की उनके साथ फोटो भी खींची।मुझे तीर्थराज पुष्कर का ये सरोवर बहुत पसन्द है।मुझे इसके किनारे बैठना बहुत अच्छा लगता है।सरोवर पर बहुत से घाट बने हुए हैं।और साथ ही सरोवर के चारों और बहुत से मन्दिर बने हुए हैं।शाम के समय घाटों पर पूजा करने वाले लोग दीपक जलाते है।मंदिरों की घण्टियाँ और कतार में जलते हुए ये दीपक मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।वैसे मेरा पूजा पाठ में कोई यकीन नही है।
  अंधेरा हो चुका है और हम लोगों को ठहरने के ये जगह भी तालाश करनी है।वैसे पुष्कर में रुकने की कोई दिक्कत नही है।यहां असंख्य धर्मशालाएं और होटल बने हुए है।विभिन्न जातियों की अलग अलग धर्मशालाएं भी है।अपनी जाति की धर्मशाला में भी आप आसानी से ठहर सकते हैं।हमें ब्रह्मा मन्दिर के पास ही एक धर्मशाला में जगह मिल गयी।मन्दिर के पास ही अच्छे होटल बने हुए हैं जहां आप अच्छा खाना खा सकते है।हम लोग कई देर तक पुष्कर के बाजार में घूमते रहे और 10 बजे के करीब खाना खाकर सो गए।कल हमें ब्रह्मा मन्दिर जाना है और साथ ही सावित्री मन्दिर भी।सावित्री मन्दिर ऊपर पहाड़ी पर बना हुआ है।

विजय स्मारक

विदेशी महिलाओं के साथ मोंटू

अलाव सेंकता अजय


इस यात्रा वृतांत को आगे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

अजमेर- पुष्कर यात्रा-2(जयपुर)

होटल जिस में रहना पड़ा

इस यात्रा वृतांत को शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

31 दिसम्बर,2017


सिंधीकैंप, मेरा पहले जब भी जयपुर आना हुआ है मैंने यह नाम कई बार सुना था। जैसे ही बस जयपुर में प्रवेश करती थी तब किसी भी चौक या छोटे स्टैंड पर बस रूकती थी तब वहां नीचे खड़े यात्री आवाज लगाते थे ,"भाई साहब क्या यह बस सिंधी कैंप जा रही है?"
तब मेरे आस पास बैठे किसी यात्री का जवाब हां में होता था। इस प्रकार मुझे यह शब्द कई बार सुनना पड़ता था। मैं कई बार सोचा करता था यह सिंधी कैंप शायद जयपुर की बहुत महत्वपूर्ण जगह है। एक दिन मुझे मेरे एक साथी से पता चला कि जयपुर के बस स्टैंड का नाम ही सिंधी कैंप है उसके बाद मैंने भी हमेशा बस स्टैंड की जगह सिंधी कैंप ही बोलना शुरु कर दिया।

सिंधी कैंप के सामने ही एक गली में शिव शक्ति गेस्ट हाउस है ,उसकी बगल में ही एक दूसरा गेस्ट हाउस बना है
।शायद इस गेस्ट हाउस का कोई नाम नहीं है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि गेस्ट हाउस के दरवाजे पर नाम का कोई बोर्ड नहीं था। जब हम रहने के लिए जगह की तलाश कर रहे थे तब हमें इस गेस्ट हाउस का एक कर्मचारी मिल गया ,उसने हमसे पूछा कि क्या आप कमरे की तलाश कर रहे हैं?अगर ऐसा है तो आप हमारे होटल में ठहर सकते हैं।हमारे होटल में आपको सस्ते में कमरे मिल जाएंगे और साथ ही गर्म पानी में मिलेगा नहाने के लिए। उसने कहा एक बार आप हमारी होटल में चल कर कमरे देख ले।अगर पसंद आए तो ले लेना वरना जैसी आपकी मर्जी।अनिल ने कहा चलो एक बार चल कर देख लेते हैं।अगर कमरों के साथ साथ किराया भी सही लगा तो ले लेंगे।वर्ना और कहीं देख लेंगे।

होटल पहुंचे,कमरे देखे। देखने में कमरे ठीक लगे और हमने 850 रुपए में दो कमरे ले लिए।रुपये जमा करवा दिए और रजिस्टर में एंट्री भी करवा दी।
बस यहीं गलती हो गयी ।जब ध्यान से कमरों को देखा गया तब मालूम हुआ कि कमरों का हाल बेहाल है। शौचालय बदबू से सने हुए थे एवं कमरों से भी बदबू आ रही थी। जब मैंने इसकी शिकायत की तो होटल कर्मचारी ने कहा कि आप 10 मिनट अपना सामान बाहर बरामदे में रख लो। मैं थोड़ी देर में कमरों और शौचालयों की सफाई करवा देता हूं ।थोड़ी देर में जब सफाई हो गई तो हम लोगों ने अपना समान अंदर रख दिया ।एक कमरे के बेड की चादर ठीक से बिछी हुई नहीं थी ।जब उसे ठीक करने के लिए अजय ने चादर को उठाया तो नीचे गद्दे पर दो-तीन कॉकरोच विचरण करते हुए नजर आए ।हमें यह देख कर अपनी गलती का अच्छे से एहसास हो गया ।हमने उस होटल कर्मचारी को बुलाया और उसे कॉकरोच दिखाए। साफ करने के बावजूद भी कमरे और शौचालय ढंग से साफ नहीं हुए थे।यह भी हमने उसे दिखा दिया। हमने उससे कहा श्रीमान जी आप पचास सौ रुपये काट कर हमें बाकी रुपए वापस कर दे। उसने पैसे वापस करने से मना कर दिया। मेरी और अनिल की उससे कई देर तक बहसबाजी होती रही।नतीजा यह रहा कि कमरों और शौचालयों की सफाई ढंग से हो गई ।अब वह स्थान हमारे रहने योग्य हो गया था।

लगभग 11:30 बज चुके थे और हमें जयपुर में घूमने के लिए निकलना था।घूमने के लिए निकलने से पहले सभी की इच्छा नहाने की थी। हमारे कमरों के स्नान गृह मैं गरम पानी की व्यवस्था नहीं थी।हमसे कहा गया था कि आपको नहाने के लिए गर्म पानी की बाल्टियां दे दी जाएंगी।आधे घंटे में सिर्फ एक बाल्टी पानी ही गर्म हो पाया। अनिल को छोड़कर सभी को ठंडे पानी से स्नान करना पड़ा।सभी साथी तैयार होकर होटल से निकल लिए ।उस समय तक लगभग 12:30 बज चुके थे सबसे पहले हम खाना खाने के लिए खंडेलवाल होटल जो कि सिंधी कैंप बस अड्डे पर ही बना हुआ है में पहुंचे।होटल के प्रथम तल पर खाना खाने के बाद हम लोग एक मिनी बस में बैठकर आमेर की ओर चल पड़े ।बस ने आमेर तक की 11 किलोमीटर की दूरी तय करने में पौने घंटे से ज्यादा समय ले लिया।

आमेर कस्बा गुलाबी नगरी जयपुर से लगभग 11 किलोमीटर दूरी पर स्थित है।यह कस्बा लगभग 4 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। दिल्ली जयपुर राजमार्ग पर स्थित इस कस्बे के बाहर पहाड़ पर आमेर दुर्ग बना हुआ है ।इसे अंबेर दुर्ग भी कहा जाता है। इस किले का निर्माण महाराजा भारमल, मानसिंह प्रथम एवं महाराजा जयसिंह ने 16वीं शताब्दी में करवाया था। इस किले की विशेषताओं में से एक विशेषता यह है कि इस किले का निर्माण विशुद्ध भारतीय वास्तुकला के प्रयोग से हुआ है। इस किले को बनाने में लाल पत्थर और संगमरमर का प्रयोग किया गया है।इस किले में निर्मित दीवाने आम, दीवाने खास, शीश महल और किले में बने हुए दैत्याकार दरवाजे अपना एक अहम स्थान रखते हैं। इस किले में हर वक्त ठंडी ठंडी हवा बहती रहती है ,इसलिए इसे आमेर महल भी कहा जाता है। इसके किले को विश्व धरोहर में शामिल किया गया है ।पर्यटन की दृष्टि से इस किले का एक विशेष स्थान है।

मिनी बस ने हमें जिस स्थान पर उतारा वहां से लगभग 10 मिनट पैदल चलने के बाद हम किले के पास पहुंचे ।किला पहाड़ पर बना होने के कारण ऊपर चढ़ना पड़ता है ।दूर से देखने पर किले की भव्यता अनायास ही हमारा ध्यान अपनी और खींच लेती है ।साल का अंतिम दिन होने की वजह से एवं नए साल का आगाज होने की वजह से उस दिन किले में बहुत ज्यादा भीड़ थी ।बहुत से लोग परिवार सहित घूमने के लिए आए हुए थे। बहुत से स्कूलों के बच्चे भी शैक्षणिक भ्रमण के लिए आए हुए थे ।इस वजह से भीड़ होना लाज़मी थी। हम लोग किले के अंदर सिर्फ वही तक गए जहां तक जाना मुफ्त था। मेरा मतलब है कि जहां तक जाने की टिकट नहीं लगती ।उन सभी जगहों पर हम लोगों ने अच्छा समय बिताया, फोटो खींची गई ।किले के आगे बने हुए सरोवर के पास भी हम लोग थोड़ी देर तक बैठे रहे ।यहां आकर काफी अच्छा भी लगा पर भीड़ की वजह से ज्यादा मजा नहीं आया।

घूमने के बाद सड़क पर आ गए और एक खोमचे वाला जो की नमकीन दाल बेच रहा था से पूछा-

" हमें हवा महल जाना है, कैसे जा पाएंगे ?"

उसने एक मिनीबस की तरफ इशारा कर दिया बोला-

"उसमें चढ़ जाओ, हवामहल छोड़ देगी।"

हम लोग भयंकर वाली भीड़ को चीरते हुए उस बस में चढ़ गए। हमारे चढ़ने के बाद बस में पांव रखने की भी जगह नहीं बची।फिर भी चार-पांच लोग अपनी मेहनत के बलबूते पर बस में अपना स्थान बनाने में कामयाब हो गए।
ठीक ही कहा गया है "मेहनत करने वालों की हार नही होती"।

लगभग 15 मिनट बाद हम जल महल के पास टहल रहे है ।बहुत बड़े झीलनुमा तालाब के बीच में बना हुआ जल महल बहुत ही आकर्षक लग रहा है। इस समय वहां तक जाने की आज्ञा किसी को नहीं है ।हम लोग जल महल के पास बने हुए खुले बाजार में लगभग 15-20 मिनट घूमते रहे और फोटोग्राफी भी चलती रही ।यहां मोंटू जी के मन में जूस पीने की तीव्र कामना जाग उठी।मुझे बोला-

"यार जूस पीते है गन्ने का।"

मैंने कहा-"चलो पी लेते हैं।"

एक जूस वाले को हमने 10 रुपये गिलास के हिसाब से 6 गिलास जूस का आदेश दे दिया।

हमने बाकी साथियों को भी आवाज देकर बुला लिया।अजय और शमशेर भी आकर खड़े हो गए।सबसे पहले मोंटू को जूस का गिलास दिया।ये डिस्पोजल वाला पारदर्शी गिलास था।आधे गिलास में जूस था जबकि बाकी गिलास तो झाग से भर गया था।उसके बाद हम तीनों को गिलास दिए गए जो लगभग पूरे भरे हुए थे।मोंटू ने जूस वाले से शिकायती लहजे में कहा-

"यार ये आधा गिलास तो झाग से भरा हुआ है।"

उधर से जवाब मिला-"ये पी लो और डाल देंगे।"

सभी ने अपना-अपना गिलास खाली कर दिया।उसने मोंटू के गिलास में और जूस डाल दिया।ये देखकर मैंने भी अपना गिलास आगे कर दिया।मुझे देखकर शमशेर ने और फिर अजय ने भी।इधर से अनिल और विनोद भी आ गए।उन्होंने भी 1-1 गिलास जूस पी लिया।
अब आई पैसे देने की बारी।पूछा-

"कितने हुए?"

"4 और 4 आठ,आठ और 2 दस।दस धाएँ सौ।आप 100 रुपये दे दो।"

"यार मेरा गिलास तो आधा था।"

जूस वाले ने मोंटू को आधा गिलास जूस और दे दिया।
"अब पूरे 10 हो गए।"

उसके बाद वापिस कमरे पर पहुंचने का विचार किया। एक ऑटो वाले से सिंधी कैंप चलने की बात की उसने बताया कि आगे जाम लगा हुआ है ।उसने चलने से मना कर दिया उसने बताया कि इस समय यहां से कोई भी ऑटो वाला सिंधी कैंप जाने के लिए तैयार नहीं होगा ।आप लोग एक काम करो यहां से लगभग 10 मिनट चलने के बाद एक चौक आएगा ।वहां तक पैदल चले जाओ। वहां से आपको सिंधी कैंप के लिए ऑटो या कोई अन्य वाहन आसानी से मिल जाएगा ।हम लोग पैदल चलते हुए उस चौक तक पहुंच गए ।चौक पर तैनात कर्मचारी ने हमें बताया कि आपको यहां से सिंधी कैंप के लिए ऑटो मिलना मुश्किल है। क्योंकि आज वर्ष का अंतिम दिन होने की वजह से प्रशासन ने सिंधी कैंप जाने वाले कई रास्ते,ऑटो और सार्वजनिक वाहनों के लिए बंद कर दिए हैं ।उसने बताया कि आप लोग अगले चौक पर चले जाएं वहां से शायद आपको कोई न कोई साधन मिल ही जाएगा।

अगले चौक के लिए चलना शुरू कर दिया।रास्ते में पीछे से 
आता हुआ एक ऑटो हाथ देकर रुकवाया।
पूछा-"सिंधीकैम्प चलोगे?"
"चल पड़ेंगे,कितनी सवारी है?"
"छः"
"दो सौ रुपये लूंगा।"
"थोड़ा जायज लगा यार।"
"200 ही लगेंगे।"
"तू जा भाई हम पैदल ही पहुँच जाएंगे।"
चलते रहे,चलते रहे।पीछे से आते हुए 2-3 ऑटो वालो को रुकवाया।कोई बात नही बनी, दो सौ ही मांग रहे थे।एक डेढ़ सौ तक भी आ गया वो भी ज्यादा लगे।उसको भी छोड़ दिया।
मैं और अनिल बाकियों से थोड़ा आगे चल रहे हैं,अनिल मुझसे मुखातिब होता है-
"संजय,तुझे पता है कोई भी ऑटो वाला हमें सस्ते में ले जाने के लिए तैयार क्यों नही होता?"

"मुझे तो नही पता,तू ही बता भाई।"

"ऑटो वाले हम छः जनों को देख के डर जाते हैं कि 80-80 किलो के हैं,किराया तो 100 रुपये देंगे,अगर पंक्चर हो गया तो 50 रुपये उसके लग जाएंगे,क्या घण्टा बचेगा?"

"अनिल,तेरी बात में दम तो है।ये सोच हो सकती है।"

हम इसी तरह बातें करते हुए आगे चलते जा रहे हैं,तभी एक मोड़ पर एक मोटर रिक्सा नज़र आता है।मैं आवाज लगाता हूँ-

"भाईसाह...ब,सिंधीकैम्प?"

उसने रिक्सा रोक लिया और पूछा- "कितनी सवारी है?"

"छः,कितने लोगे?"

"130 दे देना,बैठ जाओ।"
थोड़ी बहुत बातचीत के बाद वो आदमी 100 रुपये में ले जाने के लिए तैयार हो गया।सभी बैठ गए और रिक्सा चल पड़ा।
अभी चलते हुए 10-12 मिनट हुए हैं।रिक्सा एक भीड़ भाड़ वाली गली से गुजर रहा है।तभी ड्राइवर ने रिक्सा रोक दिया।
हमने पूछा-"क्या हुआ?"

"शायद पंक्चर हो गया है।यहीं पास में ही दुकान है,10 मिनट में लग जाएगा।"

पास में ही एक दुकान पर पंक्चर लगाने का काम शुरू हो गया।हम लोग वहीं खड़े होकर आपस मे बातें करने लग गए।मुझे और अनिल को हंसी आ रही है।वही बात हो गई जो हम सोच रहे थे।

"80-80 किलो के छः नग नतीज़ा पंक्चर।"

शाम के साढ़े 5 बज चुके है।हम लोग होटल में अपने कमरे में आ चुके हैं।साल 2017 को विदाई देने के लिए पार्टी करने का फैसला किया जा चुका है।पार्टी की जाती है और उसके बाद खाना भी खाया जाता है।लगभग 10 बजे के करीब अनिल,शमशेर और टिंकू(विनोद) दूसरे कमरे में चले जाते है।मैं,मोंटू और अजय अपने-अपने बिस्तर पर लेट जाते हैं।कल अजमेर के लिए निकलना है।

इस यात्रा का नाम अजमेर-पुष्कर देने की वजह सिर्फ यही है कि हम लोग ढंग से सिर्फ अजमेर और पुष्कर को ही देख पाए।जयपुर में तो समझो सिर्फ रुके ही थे।



चलते हुए तक गए तब बैठ गए

आमेर किले के आगे बने उद्यान में अजय





आमेर किले में कुलदीप



इस यात्रा वृतांंत को आगे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

 


बुधवार, 10 जनवरी 2018

अजमेर-पुष्कर यात्रा-1

जलमहल के आस पास कहीं

दिसम्बर 2017 का अंतिम दूसरा दिन शाम के 5 बजने को है।
मैं अपना बैग पैक कर चुका हूँ।
बैग में मेरे पहनने के 2 जोड़ी कपड़ो के अलावा सफर में काम आने वाली सभी वस्तुएं डाली जा चुकी है।एक गर्म चादर हमेशा बैग में रहती ही है।एक प्लास्टिक के बक्से में बाजरे की रोटियों का चूरमा भी डाला गया है।जो रास्ते मे खाने के काम आएगा।मेरा गांव बिराण राजस्थान राज्य के जिला हनुमानगढ़ में पड़ता है।हमारी तहसील तो भादरा है पर भादरा की उपेक्षा पड़ौसी राज्य हरियाणा का कस्बा मंडी आदमपुर जो कि तहसील भी है नजदीक पड़ता है।जहां हमारी तहसील भादरा 30 किलोमीटर है वहीं मंडी आदमपुर लगभग 14 किलोमीटर है।

आज मुझे अपने कुछ दोस्तों के साथ अजमेर पुष्कर की यात्रा के लिए निकलना है।रात्रि साढ़े ग्यारह बजकर पांच मिनट पर हिसार रेलवे स्टेशन से जयपुर के लिए एक सवारी गाड़ी जाती है।उसी में हम जयपुर तक जाएंगे।लगभग साढ़े 5 बजे मैं घर से चल पड़ा।छोटे भाई राकेश  ने मुझे गाड़ी से लगभग सवा छः बजे आदमपुर शहर से बाहर अग्रोहा मार्ग पर छोड़ दिया।वहां से एक ऑटो मिला जिस में अग्रोहा मोड़ पहुंचा और वहां से रोडवेज की बस मिल गयी हिसार के लिए।लगभग सवा 8 बजे मैं हिसार रेलवे स्टेशन पर था।इस यात्रा पर जाने वाले साथियों में से एक साथी शमशेर हिसार ही था मैंने उसके पास फोन कर दिया कि स्टेशन आ जाए।शमशेर के पास फोन करने के बाद मैं शेव करवाने लग गया।शेव करवाने के थोड़ी देर बाद शमशेर भी पहुँच चुका था।शेष 4 मित्र उकलाना से आने है उनकी गाड़ी लेट होने की वजह से वो लोग लगभग 
साढ़े दस बजे तक आएंगे।

स्टेशन से बाहर आकर मैंने और शमशेर ने चाय पी और जयपुर के लिए छः टिकट भी ले ली।लगभग 10 बजे के करीब गाड़ी भी प्लेटफॉर्म पर लग गयी।हमनें सभी साथियों के लिए सोने हेतु सीट रोक ली।ज्यादा दिक्कत भी नही हुई क्यों कि उस समय तक ज्यादा यात्री नही थे।लगभग साढ़े दस बजे उकलाना से आने वाली गाड़ी भी आ गयी।साथ ही शेष चारों यात्री अनिलअजय , विनोद  और  कुलदीप उर्फ मोंटू भी आ गए।सभी ने गाड़ी में अपना सामान रखा और उसके बाद शमशेर को छोड़कर बाकी सभी साथी खाना खाने के लिए स्टेशन से बाहर एक होटल पर पहुँचे।खाना खाने के बाद सभी वापिस गाड़ी में अपनी सीटों पर आ गए।मुझे और अजय को छोड़कर सभी ऊपर वाली सीटों पर सो गए।


सर्दी ज्यादा होने की वजह से मुझे ऊपर वाली सीट पर सोना ठीक नही लगा।शायद अजय ने भी यही सोचा होगा।मैं अजय एक दूसरे के सामने खिड़की वाली सीट पर बैठे हुए थे।गाड़ी चलने से थोड़ी देर पहले 2 लड़के और एक आदमी हमारे कूपे में हमारे पास आकर बैठ गए।गाड़ी चलते ही बातों बातों पता लगा कि दोनों लड़के कश्मीर राज्य से हैं।वो लोग कश्मीर के अनन्तनाग जिले के रहने वाले थे।दोनों का व्यवहार काफी अच्छा था वो लोग सेब का व्यापार करते है और उसी की सिलसिले में उनका हरियाणा आना हुआ था।अब वो लोग अजमेर दरगाह शरीफ में माथा टेकने जा रहे थे।एक का नाम जाहिद और दूसरे का नाम सोहैल था।उनसे काफी बातें हुईं और कश्मीर के हालातों पर भी बात हुई।उन लोगो ने हमें अनन्तनाग आने की दावत दी है।देखो कब जाना होता है।फोन नम्बर का भी आदान प्रदान हुआ।फेसबुक पर भी दोस्ती को बढ़ाया गया।बातों बातों में नींद आने लगी।चादर ओढ़ी और सो गए।सुबह साढ़े पांच बजे के करीब गाड़ी अलवर पहुंची।उसके बाद तो गाड़ी बहुत से स्टेशनों पर कई कई देर रुककर चल रही थी।ये सब दूसरी गाड़ियों को क्रॉसिंग देनेे या उन्हें आगे निकालने के लिए हो रहा था।
गाड़ी लगभग साढ़े दस बजे जयपुर पहुंच गई।

दोनों कश्मीरी साथी स्टेशन पर ही रुक गए।उन्हें अजमेर जाना था।शायद कोई गाड़ी इस समय अजमेर के लिए हो।ये जानने के लिए वो लोग पूछताछ खिड़की की ओर बढ़ गए।जबकि हम लोग सिंधीकैम्प बस अड्डा जाने के लिए स्टेशन से बाहर आ गए।मिनीबस द्वारा हम लोग बस अड्डे पहुंचे और एक होटल में दो कमरे ले लिए।


जयपुर रेलवे स्टेशन पर कश्मीरी मित्रों के साथ

आमेर दुर्ग

जलमहल:अनिल और विनोद

आमेर:अनिल,मोंटू और शमशेर

जलमहल जयपुर

अगला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.... 


शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

हेमकुंड साहिब यात्रा भाग 7: बद्रीनाथ धाम दर्शन और घर वापसी


बद्रीनाथ मंदिर का आकर्षक दृश्य

इस यात्रा वृत्तांत को शुरू से पढ़ने के लिए  यहाँ क्लिक करें।

17 जून,2016

सुबह आराम से सो कर उठे।रात को देर तक बरसात होती रही थी।हम लोगों ने अपनी बरसाती वगैरह सूखने के लिए सीढ़ियों के पास टांग दी थी।उठकर सबसे पहले शौच आदि से निवृत हुए उसके बाद जिसे नहाना था वो नहा लिया।मैं नही नहाया क्यों की मैं रात को नहा कर ही सोया था।लगभग साढ़े नौ बजे गुरुद्वारे से अलविदा हुए और ऊपर सड़क पर आ गए जहाँ से हमें हरिद्वार या ऋषिकेश की बस मिलनी थी।आज घर के लिए वापिस लौटना था।बस के मिलने वाली जगह पहुँच कर चर्चा हुई कि यहां से बद्रीनाथ धाम भी नजदीक है क्यों न वहां भी चला जाए।अजय ने स्पष्ट मना कर दिया कि नही जाना।आगे कभी देखेंगे।चलो कोई बात नही आपका आदेश सर आँखों पर।सड़क पर खड़े खड़े कई देर हो गयी।हरिद्वार या ऋषिकेश की कोई बस नही आई।जो भी बस आती बिल्कुल भरी हुई ही आती।एक भाई ने बताया यहां से हरिद्वार और ऋषिकेश के लिए कोई बस बनकर नही चलती।जो भी जाती है वो बद्रीनाथ से ही आती है।

कुछ देर बाद हमें उसकी बात अच्छी तरह समझ आ गई।अजय को भी आ गई।उसके बाद फैसला ये हुआ की हमें जिस भी तरफ का साधन पहले मिलेगा उसी तरफ चल पड़ेंगे।

15-20 मिनट के बाद एक पिकअप आती हुई नजर आई।हमारे इशारा करने ड्राइवर गाडी रोक ली।वो बद्रीनाथ ही जा रहा था।कहने लगा आपको पीछे डिग्गी में खड़ा होना पड़ेगा और मैं गाडी बहुत तेज़ चलाता हूँ।देखलो कभी आप लोगों को दिक्कत हो।हमनें कहा भाई कोई दिक्कत नही है तू बस हमें ले चल।ड्राइवर के साथ एक औरत भी थी जो आगे बैठी थी।
गोविंदघाट से निकलने के बाद तो नज़ारे ही बदल गए।अलग ही तरह के पहाड़ नज़र आ रहे थे।अलकनन्दा भी पहले वाली नही लग रही थी।रास्ते में कई जगह भूस्खलन का असर साफ़ नज़र आ रहा था।ड्राइवर ने गाडी बहुत तेज़ गति से भगा रखी थी।सच पूछो तो बहुत मजा आ रहा था।जब कोई मोड़ आता तो थोड़ा सा डर भी लगता।

गोविंदघाट से बद्रीनाथ लगभग 25 किलोमीटर की दुरी पर है।रास्ते में पांडुकेश्वर,लम्बगढ़ और हनुमान चट्टी नाम की जगहें आई।ड्राइवर ने लगभग पौने घण्टे में हमें बद्रीनाथ बस स्टैंड से लगभग आधा किलोमीटर पहले छोड़ दिया।वहां से हम पैदल बद्रीनाथ मंदिर के लिए चल पड़े।लगभग आधे घण्टे में मंदिर पहूंच गये।बाहर गर्म पानी के स्त्रोत है और साथ ही अलकनन्दा बिल्कुल मंदिर के आगे से बहती है।यहाँ आकर बहुत अच्छा लग रहा था।यहाँ के प्राकृतिक दृश्य देखकर बस यहीं रहने का मन कर रहा था।आसमान को छूते ऊँचे पर्वत अपनी और बुला रहे थे।

मंदिर में ज्यादा भीड़ नही थी।लगभग आधे घण्टे में सभी ने दर्शन कर लिए।मंदिर के अंदर कैमरा प्रयोग करने की अनुमति नही थी।बद्रीनाथ धाम बाहर से देखने पर बहुत खूबसूरत लग रहा था।जो हमनें अब तक तश्वीरों में देखा था वो सच में और सामने देख कर बहुत अच्छा लग रहा था।बहुत से लोग गर्म पानी में नहा रहे थे।नहाने के लिए वहां विशेष स्नानागार बना रखे हैं।

दर्शन के बाद थोड़ी देर बाहर के नजारे लिए और उसके बाद वापिस बस अड्डे की और चल पड़े।बद्रीनाथ से 3 किलोमीटर आगे भारत का अंतिम गाँव माणा है।वो भी देखने का मन था पर समय की कमी को देखते हुए माणा को भविष्य के लिये टाल दिया।बस अड्डे पहुँचते हमें ऋषिकेश के लिए बस मिल गयी।परिचालक महोदय ने बताया कि रात्रि विश्राम श्रीनगर में होगा।कारण पूछने पर उसने बताया कि उत्तराखण्ड में रात को गाडी चलाने पर रोक है।एक बजे के करीब बस चल पड़ी।उन्हीं आकर्षक दृश्यों का आनन्द लेते हुए रात को 9 बजे के करीब श्रीनगर
पहुँच गये।श्रीनगर में 500 रूपये में कमरा मिल गया।खाना खाया और सो गए।सुबह नहा धोकर 5 बजे उस जगह पहुँच गये जहाँ बस मिलनी थी।सवा 5 बजे बस चल पड़ी।तारीख बदल कर 18 जून हो गयी थी।बस ने साढ़े 9 बजे के करीब ऋषिकेश पहुँचा दिया।

ऋषिकेश से बस पकड़ी और हरिद्वार आ गए।हरिद्वार आने के बाद खाना खाया गया।मैंने और अनिल ने यहां थोड़ी से खरीददारी भी की।एक बजे वहां से हमें हिसार के लिए बस मिल गयी।रात 10 बजे के करीब हिसार पहुंचे।और वहां से रेलगाड़ी द्वारा आधी रात को उकलाना पहुँच चुके थे

बद्रीनाथ से आधा किलोमीटर पहले जहाँ हमें गाडी वाले ने उतारा था

थोड़ा दूर से दिखाई देता बद्रीनाथ धाम

विनोद और बद्रीनाथ मंदिर

बद्रीनाथ के प्राकृतिक दृश्य



पाँच मुसाफिर

यात्रा सम्पन्न....

रविवार, 30 जुलाई 2017

हेमकुंड साहिब यात्रा भाग 6: घांघरिया से हेमकुंड सहिब

इस यात्रा वृत्तांत को शुरू से पढ़ने के लिए  यहाँ क्लिक करें।

16 जून,2016


घांघरिया और हेमकुंड साहिब के रास्ते में

रात को नींद बहुत अच्छी आई।सुबह साढ़े 4 बजे के करीब उठ गए।हम से पहले बहुत से लोग उठ चुके थे।बहुत से लोग तो नहा धो कर ऊपर प्रस्थान भी कर चुके थे।शमशेर हमारे साथ नही उठा।कल लिए गए निर्णय के मुताबिक शमशेर वापिस गोविंदघाट जाएगा जबकि हम ऊपर हेमकुंड साहिब की यात्रा के लिए प्रस्थान करेंगे।शमशेर को कोई जल्दी नही थी इसलिए वो आराम से सोता रहा।उठने का तो मेरा बिल्कुल भी मन नही था लेकिन उठना पड़ा।जिस हॉल में हम सोए थे वो लंगर हॉल के ऊपर बना हुआ था।उठकर नीचे आए।चाय पी।फिर नहाने पर चर्चा हुई।सभी ने ठंड को देखते हुए न नहाने का फैसला किया।

लगभग सवा पांच हो चुके हैं।चलने की सभी तैयारियाँ हो चुकी हैं।विनोद लंगर हॉल में खाना खाने गया हुआ है।मेरा अजय और अनिल का खाने का मन नही है।गुरुद्वारे के मुख्यद्वार के पास ही एक दीवार के पास बहुत सी छड़ियाँ पड़ी हुई हैं।इनमें से कुछ ठीक हालत में भी हैं।ये छड़ियाँ यात्रा के दौरान चढाई में बहुत सहयोग देती हैं।जो लोग ऊपर से वापिस आते है वो अपनी प्रयोग की गई छड़ी यहां छोड़ देते हैं ताकि वो किसी और के काम आ सके।कुछ ही देर में विनोद खाना खा कर आ चुका है।मुझे छोड़ कर तीनों ने एक-एक छड़ी ले ली है।


हेम का अर्थ है बर्फ वहीं कुंड का अर्थ है कटोरा।इस तरह हेमकुंड का अर्थ हुआ बर्फ का कटोरा।हेमकुंड साहिब वर्षभर लगभग बर्फ से घिरा रहता है।हिंदुओं के पूज्य श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण ने यहाँ एक मंदिर का निर्माण करवाया था जिसे लक्ष्मण मंदिर कहते हैं।यहां सीखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह ने तपस्या की थी।जिस का वर्णन दशम ग्रन्थ में किया गया है।जो लोग दशम ग्रन्थ में यकीन रखते हैं उनके लिए ये स्थान बहुत महत्वपूर्ण है।जिस स्थान पर गुरु जी ने ध्यान लगाया था वहां ये गुरुद्वारा बना हुआ है जिसे गुरुद्वारा हेमकुंड साहिब कहा जाता है।गुरुद्वारे के साथ ही पवित्र सरोवर बना हुआ है जिसे हेम सरोवर के नाम से जाना जाता है।गुरुद्वारे में माथा टेकने से पहले सिख श्रद्धालू इस पवित्र सरोवर में स्नान करते हैं।गुरुद्वारा हेमकुंड साहिब और लक्ष्मण मंदिर पास पास ही बने हुए हैं।


घांघरिया जहाँ 3049 मीटर की ऊंचाई पर है वहीं हेमकुंड साहिब 4329 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।इसका मतलब हमें छः किलोमीटर की यात्रा में 1280 मीटर चढ़ना पड़ेगा।काफी दुर्गम चढाई है।खैर छः साढ़े-पांच,छः बजे के करीब गुरद्वारे से निकल पड़े।थोड़ी सी दुरी पर एक पुल आया।पुल पार कर के आगे बढ़े।थोड़ी दूर चलने पर एक रास्ता बाएं और फूलों की घाटी में जाता है जिसकी दुरी यहां से 3 किलोमीटर है।हम मुख्य रास्ते पर चलते रहे।सामने एक झरना दिखाई दे रहा था जो सामने एक पहाड़ी से नीचे गिर रहा था।बहुत खूबसूरत लग रहा था।थोड़ा सा चलने पर कठिन चढाई शुरू हो जाती है।बीच में कई जगह सीढ़ियों पर चढ़ना पड़ता है तो कई जगह पत्थरो पर भी चलना पड़ा।आज मैं और अनिल साथ है वहीं विनोद और अजय साथ चल रहे हैं।अजय का पहाड़ों में चलने का तरीका बहुत अच्छा है।छोटे कदमों के साथ अपनी सामान्य चाल से चलता है।इसलिए थकान कम होती है।विनोद का शरीर हल्का है चुस्ती भी अच्छी है।वहीं अनिल का शरीर भारी तो है पर फिट है।अनिल की समस्या ये है कि वो बहुत तेज़ी से चढ़ता है परिणामस्वरूप उसी तेज़ी से थक जाता है।मेरा वजन तो पिछले दो सालों में 75 पार कर गया है पर चलने में कोई हरकत नही होती।

रास्ते में 3-4 जगह खाने पीने की दुकानें भी आती हैं।खच्चरों की वजह से पैदल चलने वालों को काफी दिक्कत आती है।2 किलोमीटर चलने के बाद सभी को भयंकर वाली थकान होने लगी है।थोड़ी थोड़ी देर में बैठना पड़ता है।पैरों में भी दर्द होने लगा है।विनोद और अजय हमसे कुछ आगे चल रहे हैं।लगभग आधी दुरी पार करने के बाद हमे रास्ते में ऊपर से वापिस आने वाले यात्री भी मिलने लगे हैं।जिस से भी बात होती है हम यही पूछते हैं भाई साहब कितनी दूर और रह गया है।और वो हमें हौंसला देने के लिए कहते हैं कि बस अब तो थोड़ा ही रह गया है आधे घण्टे में पहुँच जाओगे।मगर ये आधा घण्टा एक घण्टा बीतने के बाद भी आधा ही रहा।लगभग 2 किलोमीटर पहले एक जगह आई जहां बर्फ का एक ग्लेशियर मिला।यहाँ बर्फ पर कुछ देर हम लोगों ने उछल-कूद की।काफी अच्छा लग रहा था यहां आने के बाद।

कुछ देर बाद आगे बढ़ गए।एक सरदार जी मिले।कहने लगे पिछली साल भी मैं इस यात्रा पर आया था उस समय 2-3 किलोमीटर बर्फ में चलना पड़ा था।घांघरिया के बाद ही बर्फ शुरू हो गई थी।इस बार तो बर्फ नाम मात्र की भी नही है।खैर चलते रहे चलते रहे।मेरा अनिल से भी ज्यादा बुरा हाल और अनिल सोच रहा है कि मेरा संजय से भी ज्यादा बुरा हाल है।अजय और विनोद लगभग 200 मीटर आगे चल रहे हैं।

निशान साहिब नज़र आने लगा है।इससे थोड़ी हिम्मत मिली है।जब हेमकुंड साहिब लगभग डेढ़ किलोमीटर रह गया तो एक जगह सीढ़ियाँ नजर आई।जो मुख्य मार्ग के बाईं और ऊपर चढ़ रही थी।सीढ़ियों के सामने की मुख्य मार्ग के किनारे एक दुकान बनी हुई थी जहां बहुत से यात्री जलपान ग्रहण कर रहे थे।हमने दुकानदार से पूछा कि क्या ये सीढियां हेमकुंड साहिब जा रही है।सकारात्मक जवाब मिलने के बाद मैंने और अनिल ने सीढ़ियों से ही जाना तय कर लिया।सीढ़ियों से चढ़ने का पंगा ले तो लिया पर किस प्रकार ऊपर पहुँचे इसे शब्दों में बताना उतना ही मुश्किल है जितना मुश्किल उस समय सीढ़ियों से चढ़ना लगा।

लगभग साढ़े बारह बजे हेमकुंड साहिब की पवित्र सरजमीं पर हमारे कदम पड़े।यहां आकर सारी थकान खत्म हो गयी।यहां ठण्ड भी अच्छी थी।अजय और विनोद हमसे 10-15 मिनट पहले ही पहुँच चुके थे।चाय पीने के बाद पहले सरोवर के पास पहुंचे।सोचा मुंह हाथ तो धो ही लेते हैं।जैसे ही पानी में हाथ डाला लगा इतना ही साहस बहुत है।हेम सरोवर काफी खूबसूरत लग रहा था।उसके बाद गुरुद्वारे में जाकर दर्शन किये,मत्था टेका।गुरुद्वारे की छत से लक्ष्मण मंदिर भी नज़र आ रहा था।गुरुद्वारा और लक्ष्मण मंदिर दोनों बहुत अच्छे लग रहे थे।गुरुद्वारे से बाहर आने के बाद लंगर हाल में पहुंचे।वहां खिचड़ी का प्रसाद मिला और साथ में फिर से चाय।4329 मीटर की ऊंचाई का हमें तो कोई खास फर्क महसूस नही हुआ।वैसे इतनी ऊंचाई पर आने पर लोगों को सांस लेने में समस्या होने लगती है।

लगभग डेढ़ बजे वापिस चल पड़े।उतराई उसी सीढियों वाले रास्ते से शुरू की।उतरते वक्त कोई दिक्कत नही हुई।लगभग 2 घण्टों में घांघरिया पहुँच गये।गुरुद्वारे में चाय पी और अगले ढाई घण्टो में पुलना।पुलना से जीप पकड़ी और 20 मिनट में गोविंदघाट स्थित गुरुद्वारे में पहुँच गये।हमारे गोविंदघाट पहुँचते ही जबरदस्त बारिश शुरू हो गयी।गुरुद्वारे में शमशेर ने हमारे लिए पहले ही बिस्तर आरक्षित करवा रखे थे।थकान की वजह से जल्दी खाना खाया और सो गए।


रास्ते में एक ग्लेसियर के पास विनोद









हेम सरोवर







हेम सरोवर



विनोद मूंछो को ताव देता हुआ

गुरुद्वारा हेमकुंड साहिब का शानदार नज़ारा





बरसात की वजह से बरसाती पहननी पड़ गयी थी

बर्फ से खेलते हुए अजय

अनिल रास्ते में

अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।